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________________ २९६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध लेने का जरा भी विचार मन में नहीं लाते थे। वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों इसी आशय की व्याख्या करते हैं।' ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ तईओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक (लाढ देश में ) उत्तम तितिक्षा-साधना २९३. तणफासे सीतफासे य तेउफासे य दंसमसगे य । अहियासते सया समिते फासाइं विरूवरूवाइं ॥८०॥ २९४. अह दुच्चरलाढमचारी वजभूमिं च सुभभूमिं च । पंतं सेज सेविंसु आसणगाइं चेव पंताई ॥८१॥ २९५. लाडेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसुणिवतिंसु ॥८२॥ २९६. अप्पे जणे णिवारेंति लूसणए। सुणए डसमाणे । छुच्छुकारेंतिं आहेतु समणं कुक्कुरा दसंतु त्ति ॥८३॥ ण भुज्जो बहवे वज्जभूमि फंरूसासी। लढेि गहाय णालीयं समणा तत्थ एव विहरिसु ॥८४॥ २९८. एवं पि तत्थ विहरंता पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणएहिं । संलुंचमाणा सुणएहिं दुच्चरगाणि तत्थ लाढेहिं ॥५॥ १. (क) आचा० शीला० टीका पत्र ३०८ (ख) आचारांग चूर्णि मूल पाठ टिप्पण सूत्र २८८ इसका पूर्वापर सम्बन्ध जोड़कर चूर्णिकार ने अर्थ किया है - एरिसेस सयण-आसणेसु वसमाणस्स'लाढेस ते उवसग्गा बहवे जाणवता आगम्म लूसिंसु' - 'लूस हिंसायाम्' कट्ठमुट्ठिप्पहारादिएहिं उमग्गेहि य लूसेति। एगे आहु - दंतेहिं खायंते त्ति।" - अर्थात् - ऐसे शयनासनों में निवास करते हुए भगवान् को लाढदेश के गाँवों में बहुत-से उपसर्ग हुए। बहुतसे उस देश के लोग ऊजड़ मार्गों में आकर भगवान् को लकड़ी, मुक्के आदि के प्रहारों से सताते थे। लूस धातु हिंसार्थक है, इसलिए ऐसा अर्थ होता है। कई कहते हैं - भगवान् को वे दांतों से काट खाते थे। - चूर्णिसम्मत यह अर्थ है। ३. 'लूसणगा' जं भणितं होति त (भ)क्खणगा, भसंतीति भसमाणा, जे वि णाम ण खायंति ते वि छच्छुकारेंति आहंसु। आहंसुत्ति आहणेत्ता केति चोरं चारियं ति च मण्णमाणा केइ पदोसेण"- कुत्ते जो लूषणक होते हैं वे काट खाते हैं, जो भौंकते हैं, वे काट नहीं खाते। कई लोग कुत्तों को छुछकार कर पीछे लगा देते थे। कई लोग रात्रि काल में भगवान् को चोर या गुप्तचर समझ कर पीटते थे। यह अर्थ चूर्णिकार ने किया है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है - दुक्खं चरिज्जति दुच्चरगाणि गामादीणि....- जहाँ दुःख से विचरण हो सके, उन्हें दुश्चरक ग्राम आदि कहते हैं।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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