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________________ नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र २८९-२९२ २९५ पड़ते थे (१) सांप और नेवलों आदि द्वारा काटा जाना। (२) गिद्ध आदि पक्षियों द्वारा मांस नोचना। (३) चींटी, डाँस, मच्छर, मक्खी आदि का उपद्रव। (४) शून्य गृह में चोर या लंपट पुरुषों द्वारा सताया जाना। (५) सशस्त्र ग्रामरक्षकों द्वारा सताया जाना। (६) कामासक्त स्त्री-पुरुषों का उपसर्ग। (७) कभी मनुष्य-तिर्यंचों और कभी देवों द्वारा उपसर्ग। (८) जनशून्य स्थानों में अकेले या आवारागर्द लोगों द्वारा ऊटपटांग प्रश्न पूछ कर तंग करना। (९) उपवन के अन्दर की कोठरी आदि में घुसकर ध्यानावस्था में सताना आदि। वासस्थानों में परीषह - (१) दुर्गन्धित स्थान, (२) ऊबड़-खाबड़ विषय या भयंकर स्थान, (३) सर्दी का प्रकोप, (४) चारों ओर से बंद स्थान का अभाव आदि। परन्तु इन वासस्थानों में साधनाकाल में भगवान् साढ़े बारह वर्ष तक अहर्निश, यतनाशील, अप्रमत्त और समाहित होकर ध्यानमग्न रहते थे। यही बात शास्त्रकार कहते हैं - 'एतेहिं मुणी सयणेहिं"समाहिते झाती।' 'संसप्पगा यजे पाणा...' - वृत्तिकार ने इस पद की व्याख्या की है - भुजा से चलने वाले शून्य-गृह आदि में विशेष रूप में पाए जाने वाले सांप, नेवला आदि प्राणी। . 'पविखणो उवचरंति' - श्मशान आदि में गीध आदि पक्षी आकर उपसर्ग करते थे। 'कुचरा उवचरंति....' - कुचर का अर्थ वृत्तिकार ने किया है - चोर, परस्त्रीलंपट आदि लोग कहीं-कहीं सूने मकान आदि में आकर उपसर्ग करते थे। तथा जब भगवान् तिराहों या चौराहों पर ध्यानस्थ खड़े होते तो ग्रामरक्षक शस्त्रों से लैस होकर उनके पास आकर तंग किया करते। ३ 'अदु गामिया"इत्थी एगतिया पुरिसा य' - इस पंक्ति का तात्पर्य वृत्तिकार ने बताया है - कभी भगवान् अकेले एकान्त स्थान में होते तो ग्रामिक - इन्द्रियविषय-सम्बन्धी उपसर्ग होते थे, कोई कामासक्त स्त्री या कोई कामुक पुरुष आकर उपसर्ग करता था। भगवान् के रूप पर मुग्ध होकर स्त्रियाँ उनसे काम-याचना करतीं, जब भगवान् उनसे विचलित नहीं होते तो वे क्षुब्ध और उत्तेजित रमणियां अपने पतियों को भगवान् के विरुद्ध भड़कातीं और वे (उनके पति आदि स्वजन) आकर भगवान् को कोसते, उत्पीड़ित करते । ५ _ 'अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए' - भगवान् ने न बोलने पर या पूछने पर जवाब न देने पर तुच्छ प्रकृति के लोग रुष्ट हो जाते, मारते-पीटते, सताते या वहाँ से निकल जाने को कहते। इन सब परीषहों-उपसर्गों के समय भगवान् मौन को सर्वोत्तम धर्म मानकर अपने ध्यान में मग्न हो जाते थे। वे अशिष्ट व्यवहार करने वाले के प्रति बदला आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०७ आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०७ आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०७ ४.. आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०७ ५. आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०७ |
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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