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________________ २९४ । आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध २८९. शिशिरऋतु में ठण्डी हवा चलने पर कई (अल्पवस्त्रवाले) लोग कांपने लगते, उस ऋतु में हिमपात होने पर कुछ अनगार भी निर्वातस्थान ढूँढ़ते थे ॥७६ ॥ २९०. हिमजन्य शीत-स्पर्श अत्यन्त दुःखदायी है, यह सोचकर कई साधु संकल्प करते थे कि चादरों में घुस जाएंगे या काष्ठ जलाकर किवाड़ों को बन्द करके इस ठंड को सह सकेंगे, ऐसा भी कुछ साधु सोचते थे ॥७७॥ २९१. किन्तु उस शिशिर ऋतु में भी भगवान् (निर्वात स्थान की खोज या वस्त्र पहनने-ओढ़ने अथवा आग जलाने आदि का) संकल्प नहीं करते। कभी-कभी रात्रि में (सर्दी प्रगाढ़ हो जाती तब) भगवान् उस मंडप से बाहर चले जाते, वहाँ मूहूर्तभर ठहर फिर मंडप में आ जाते। इस प्रकर भगवान् शीतादि परीषह समभाव से या सम्यक् प्रकार से सहन करने में समर्थ थे ॥७८॥ २९२. मतिमान महामाहन महावीर ने इस विधि का आचरण किया। जिस प्रकार अप्रतिबद्धविहारी भगवान् ने बहुत बार इस विधि का पालन किया, उसी प्रकार अन्य साधु भी आत्म-विकासार्थ इस विधि का आचरण करते हैं ॥७९॥ - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - भगवान् द्वारा सेवित वासस्थान - सूत्र २७८ और २७९ में उन स्थानों के नाम बताए हैं जहाँ ठहरकर भगवान् ने उत्कृष्ट ध्यान-साधना की थी। वे स्थान इस प्रकार हैं - - (१) आवेशन (खण्डहर)। (२) सभा। (३) प्याऊ। (४) दूकान। (५) कारखाने। (६) मंच । (७) यात्रीगृह । (८) आरामगृह । (९) गाँव या नगर। (१०) श्मशान। (११) शून्यगृह । (१२) वृक्ष के नीचे। भगवान् की संयम-साधना के अंग - मुख्यतया ८ रहे हैं - (१) शरीर-संयम। (२) अनुकूल-प्रतिकूल परीषह-उपसर्ग के समय मन-संयम । (३) आहार-संयम। (४) वासस्थान-संयम । (५) इन्द्रिय-संयम । (६) निद्रा-संयम । (७) क्रिया-संयम । (८) उपकरण-संयम। भगवान् की संयम-साधना का रथ इन्हीं ८ चक्रों द्वारा अन्त तक गतिमान रहा। वे इनमें से किसी भी अंग से सम्बन्धित आग्रह से चिपक कर नहीं चलते थे। शरीर और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए (आहार, निद्रा, स्थान, आसन आदि के रूप में) वे अपने मन में अनाग्रही थे। अपडिण्णे' शब्द का पुनः पुनः प्रयोग यह ध्वनित करता है कि सहजभाव से साधना के अनुकूल जैसा भी आचरण शक्य होता वे उसे स्वीकार कर लेते थे।' ___अमुक आसनों तथा त्राटक आदि सहजयोग की क्रियाओं से शरीर को स्थिर, संतुलित और मोह-ममता रहित स्फूर्तिमान रखने का वे प्रयत्न करते थे। वे सभी प्रकार के संयम, आन्तरिक आनन्द, आत्मदर्शन, विश्वात्मचिन्तन आदि के माध्यम से करते थे। भगवान् की निद्रा-संयम की विधि भी बहुत ही अद्भुत थी। वे ध्यान के द्वारा निद्रा-संयम करते थे। निद्रा पर विजय पाने के लिए वे कभी खड़े हो जाते, कभी स्थान से बाहर जाकर टहलने लगे। इस प्रकार हर सम्भव उपाय से निद्रा पर विजय पाते थे।२। वासस्थानों-शयनों में विभिन्न उपसर्ग - भगवान् को वासस्थानों में मुख्य रूप से निम्नोक्त उपसर्ग सहने आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०७ आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०७-३०८ के आधार पर
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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