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नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र २८९-२९२
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२८५. भगवान् ने इहलौकिक (मनुष्य-तिर्यञ्च सम्बन्धी) और पारलौकिक (देव सम्बन्धी) नाना प्रकार के भयंकर उपसर्ग सहन किये। वे अनेक प्रकार के सुगन्ध और दुर्गन्ध में तथा प्रिय और अप्रिय शब्दों में हर्ष-शोक रहित मध्यस्थ रहे ॥७२॥
२८६. उन्होंने सदा समिति-(सम्यक् प्रवृत्ति) युक्त होकर अनेक प्रकार के स्पर्शों को सहन किया। वे संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति को (ध्यान द्वारा) शांत कर देते थे। वे महामाहन महावीर बहुत ही कम बोलते थे। वे अपने संयमानुष्ठान में प्रवृत्त रहते थे ॥७३॥
२८७. (जब भगवान् जन-शून्य स्थानों में एकाकी होते तब) कुछ लोग आकर पूछते - "तुम कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो ?" कभी अकेले घूमने वाले लोग रात में आकर पूछते - 'इस सूने घर में तुम क्या कर रहे हो ?' तब भगवान् कुछ नहीं बोलते, इससे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते, फिर भी भगवान् समाधि में लीन रहते, परन्तु उनसे प्रतिशोध लेने का विचार भी नहीं उठता ॥७४॥
२८८. उपवन के अन्तर-आवास में स्थित भगवान् से पूछा - "यहाँ अन्दर कौन है ?' भगवान् ने कहा-'मैं भिक्षु हूँ।' यह सुनकर यदि वे क्रोधान्ध होकर कहते – 'शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ।' तब भगवान् वहाँ से चले जाते। यह (सहिष्णुता) उनका उत्तम धर्म है। यदि भगवान् पर क्रोध करते तो वे मौन रहकर ध्यान में लीन रहते थे ॥७५॥ . शीत-परीषह २८९. जंसिप्पेगे । पवेदेति सिसिरे मारुए पवायंते ।
तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाते णिवायमेसंति ॥ ७६॥ २९०. संघाडीओ पविसिस्सामो एधा य समादहमाणा ।
पिहिता वा सक्खामो 'अतिदुक्खं हिमगसंफासा' ॥७७॥ २९१. तंसि भगवं अपडिण्णे अहे विगडे अहियासए दविए ।
णिक्खम्म एगदा रातो चाएति ३ भगवं समियाए ॥७॥ २९२. एस विही अणुक्कं तो माहणेण मतीमता । बहुसो अपडिण्णेणं भगवया एवं रीयंति ॥७९॥त्ति बेमि।
॥ बीओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥
चूर्णिकार ने इस पंक्ति की व्याख्या यों की है - "जति वि जम्हिकाले एते अन्नतित्थिया गिहत्था वा णिवेदंति सिसिरं, सिसिरे वा मारुतो पवायति भिसं वायति तंसिप्पेगे अण्णतित्थिया"-जिस काल को ये अन्यतीर्थिक या गृहस्थ शिशिर कहते हैं, शिशिर में ठंडी हवाएँ बहुत चलती हैं। उस काल में भी अन्यतीर्थिक लोग.....।
इस पंक्ति के शब्दों का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में - "पविसिस्समो-पाउणिस्सामो समिहाप्तो कड़ाई समाडहमाणा।" । अर्थात् - प्रविष्ट हो जायेंगे, आच्छादित कर (ढक) लेंगे। समिधा यानी लकड़ियों के ढेर से लकड़ियाँ निकालकर जलाते हैं।
चाएति का अर्थ चूर्णिकार ने किया है- 'सहति' भावार्थ - भगवं समियाए सम्मं, ण गारवभयहाए वा सहति । अर्थात् -भगवान् समताभाव से सम्यक् सहन करते थे, गौरव या भय से नहीं।