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आकर ध्यान - लीन हो जाते थे । ॥ ६९ ॥
विविध उपसर्ग
२८३. उन आवास-स्थानों में भगवान् को अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग आते थे। (वे ध्यान में रहते, तब ) कभी सांप और नेवला आदि प्राणी काट खाते, कभी गिद्ध पक्षी आकर माँस नोचते ॥ ७९ ॥
२८४. अथवा कभी (शून्य गृह में ठहरते तो) उन्हें चोर या पारदारिक (व्यभिचारी पुरुष ) आकर तंग करते, अथवा कभी हाथ में शस्त्र लिए हुए ग्रामरक्षक (पहरेदार) या कोतवाल उन्हें कष्ट देते, कभी कामासक्त स्त्रियाँ और कभी पुरुष उपसर्ग देते थे ॥ ७१ ॥
स्थान- परीषह
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२८३. सयणेहिं तस्सुवसग्गा ' भीमा आसी अणेगरूवा य । संसप्पगा य जे पाणा अदुवा पक्खिणो उवचरंति ॥ ७० ॥ २८४. अदु कुचरा उवचरंति गामरक्खा य सत्तिहत्था य ।
अदु गामिया उवसग्गा इत्थी एगतिया पुरिसा य ॥ ७१ ॥
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२८५. इहलोइयाइं परलोइयाई भीमाई अणेगरूवाई ।
अवि सुब्भिदुब्भिगंधाई सङ्घाई अणेगरूवाई ॥ ७२ ॥ २८६. अहियासए सया समिते फासाई विरूवरूवाई ।
अरतिं रतिं अभिभूय रीयति माहणे अबहुवादी ॥ ७३ ॥ २८७. स जणेहिं ' तत्थ पुच्छ्सुि एगचरा वि एगदा रातो ।
अव्वाहिते ' कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे * ॥७४॥ २८८. अयमंतरंसि को एत्थ अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्टु ।
अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए सकसाइए " झाति ॥ ७५ ॥
आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
'तस्स' का तात्पर्य चूर्णिकार ने लिखा है- 'तस्स छउमत्थकाले अरुहतो...।' छद्मस्थ अवस्था में आरूढ उन भगवान् के...... । इस पंक्ति का तात्पर्य चूर्णिकार ने लिखा है - "एवं गुत्तागुत्तेसु "सयणेहिं तत्थ पुच्छितु एगचार वि एगदा राओ, एगा चरंति एगचरा, उब्भामियाओ उब्भामगं पुच्छंति... अहवा दोवि जणाई आगम्म पुच्छंति....मोणेण अच्छति । ' - इस प्रकार वासस्थान (शयनस्थान) से गुप्त या अगुप्त होने पर भी रात को वहाँ कभी अकेले घूमने वाले या अवारागर्द या अवारागर्द से पूछते, या दोनों व्यक्ति भगवान् के पास आकर पूछते थे... भगवान् मौन रहते।
'अव्वाहित कसाइत्थ' का भावार्थ चूर्णिकार यों करते हैं- "पुच्छिज्जतो विवायं ण देइ त्ति काऊणं रुस्संति पिट्टंति" - अर्थात् पूछे जाने पर भी जब कोई उत्तर वे नहीं देते, इस कारण वे रोष में आ जाते और पीटते थे ।
'समाहिं अपडिण्णे' का तात्पर्य चूर्णिकार के शब्दों में- "विसयसमासनिरोही णेव्वाणसुहसमाहिं च पेहमाणो विसयसंगदोसे य पेहमाणो इह परत्थ य अपडिण्णो" - अर्थात् विषयसुखों की आशा के निरोधक भगवान् मोक्षसुख समाधि की प्रेक्षा करते हुए विषयासक्ति के दोषों को देखकर इहलोक - परलोक के विषय में अप्रतिज्ञ थे ।
'ए कसाइए, " ए स कसातिते, 'ए सक्कसाइए' ये तीन पाठान्तर हैं। चूर्णिकार ने अर्थ किया है - "गिहत्थे समत्तं कसाइ संकसाइते, ते संकसाइते णातु झातिमेव । " गृहस्थ का पूरी तरह से क्रोधादि कषायाविष्ट हो जाना संकषायित कहलाता है। भगवान् गृहस्थ (पूछने वाले) को संकषायित जानकर ध्यानमग्न हो जाते थे।
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