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नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र २७७-२८२
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२७७. (जम्बूस्वामी ने आर्य सुधर्मास्वामी से पूछा-) "भंते ! चर्या के साथ-साथ एक बार आपने कुछ आसन और वासस्थान बताये थे, अत: मुझे आप उन वासस्थानों और आसनों को बताएँ, जिनका सेवन भगवान् महावीर ने किया था"॥६४॥
__ २७८. भगवान् कभी सूने खण्डहरों में, कभी सभाओं (धर्मशालाओं) में, कभी प्याउओं में और कभी पण्यशालाओं (दुकानों) में निवास करते थे। अथवा कभी लुहार, सुथार, सुनार आदि के कर्मस्थानों (कारखानों) में और जिस पर पलालपुंज रखा गया हो, उस मंच के नीचे उनका निवास होता था ॥६५॥
२७९. भगवान् कभी यात्रीगृह में, कभी आरामगृह में, अथवा गाँव या नगर में निवास करते थे। अथवा कभी श्मशान में, कभी शून्यगृह में तो कभी वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते थे ॥६६॥
२८०. त्रिजगत्वेत्ता मुनीश्वर इन (पूर्वोक्त) वासस्थानों में साधना काल के बारह वर्ष, छह महीने, पन्द्रह दिनों में शान्त और समत्वयुक्त मन से रहे । वे रात-दिन (मन-वचन-काया की) प्रत्येक प्रवृत्ति में यतनाशील रहते थे तथा अप्रमत्त और समाहित (मानसिक स्थिरता की).अवस्था में ध्यान करते थे॥६७॥ निद्रात्याग-चर्या
२८१. णि पि णो पगामाए सेवइया भगवं उट्टाए ।
. जग्गावती य अप्पाणं ईसिं साई य अपडिण्णे. ॥६८॥ २८२. संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उठाए ।
णिक्खम्म एगया राओ बहिं चंकमिया " मुहुत्तागं ॥६९॥ २८१. भगवान् निद्रा भी बहुत नहीं लेते थे। (निद्रा आने लगती तो) वे खड़े होकर अपने आपको जगा लेते थे। (चिरजागरण के बाद शरीर धारणार्थ कभी जरा-सी नींद ले लेते थे। किन्तु सोने के अभिप्राय से नहीं सोते थे।) ॥६८॥
२८२. भगवान् क्षण भर की निद्रा के बाद फिर जागृत होकर (संयमोत्थान से उठकर) ध्यान में बैठ जाते थे। कभी-कभी (शीतकाल की).रात में (निद्रा प्रमाद मिटाने के लिए) मुहूर्त भर बाहर-घूमकर (पुन: अपने स्थान पर
चूर्णिकार ने स्वसम्मत तथा नागार्जुनीयसम्मत दोनों पाठ दिये हैं - "णि णो पगामादे सेवइया भगवं, तथा णिहा विण प्पगामा आसी तहेव उट्ठाए' - अर्थ - भगवान् ने (खड़े होकर) गाढ रूप से निद्रा का सेवन नहीं किया। भगवान् की निद्रा अत्यन्त नहीं थी, तथैव वे खड़े हो जाते थे। इस पंक्ति का अर्थ चूर्णिकार ने किया है - 'जग्गाइतवां अप्पाणं झाणेण' भगवान् ने अपनी आत्मा को ध्यान से जागृत कर लिया था। चूर्णिकार ने इसके बदले 'ईसिं सतितासि' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है - इत्तरकालं णिमेस-उम्मेसमेत्तं व (प) लमित्तं वा ईसिं सइतवां आसी...अपडिण्णो।' - अर्थात् - ईषत् का अर्थ है - थोड़े काल तक, निमेष-उन्मेषमात्र या पलमात्र काल। भगवान् सोये थे। वे निद्रा की प्रतिज्ञा से रहित थे। इसके बदले 'संबुझमाणे पुणरावि...' पाठान्तर मानकर चूर्णिकार ने तात्पर्य बताया है - "...ण पडिसेहाते,ण पज्झायति, ण णिद्दापमादं चिरं करोति" निद्रा आने लगेगी तो वे उसका निषेध नहीं करते थे, न अत्यन्त ध्यान करते थे और न ही चिरकाल तक निद्रा-प्रमाद करते थे। इसके बदले 'चक्कमिया चंक्कसिया, चंकमित, चक्कमित्त' आदि पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ एक-सा है।