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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्थ से पृथक्-पृथक् रूप से संसार में स्थित हैं या अज्ञानी जीव अपने कर्मों के कारण पृथक्-पृथक् रूप रचते हैं ॥५४॥
२६८. भगवान् ने यह भलीभाँति जान-मान लिया था कि द्रव्य-भाव-उपधि (परिग्रह) से युक्त अज्ञानी जीव अवश्य ही (कर्म से) क्लेश का अनुभव करता है। अतः कर्मबन्धन को सर्वांग रूप से जानकर भगवान् ने कर्म के उपादान रूप पाप का प्रत्याख्यान (परित्याग) कर दिया था॥५५॥
२६९. ज्ञानी और मेधावी भगवान् ने दो प्रकार के कर्मों (ईर्याप्रत्यय और साम्परायिक कर्म) को भलीभाँति जानकर तथा आदान (दुष्प्रयुक्त इन्द्रियों के) स्रोत, अतिपात (हिंसा, मृषावाद आदि के) स्रोत और योग (मनवचन-काया की प्रवृत्ति) को सब प्रकार से समझकर दूसरों से. विलक्षण (निर्दोष) क्रिया का प्रतिपादन किया है ॥५६॥
२७०. भगवान् ने स्वयं पाप-दोष से रहित - निर्दोष अनाकुट्टि (अहिंसा) का आश्रय लेकर दूसरों को भी हिंसा न करने की (प्रेरणा दी)। जिन्हें स्त्रियाँ (स्त्री सम्बन्धी काम-भोग के कटु परिणाम) परिज्ञात हैं, उन भगवान् महावीर ने देख लिया था कि 'ये काम-भोग समस्त पाप-कर्मों के उपादान कारण हैं,' (ऐसा जानकर भगवान् ने स्त्री-संसर्ग का परित्याग कर दिया) ॥५७॥
__२७१. भगवान् ने देखा कि आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार ग्रहण सब तरह से कर्मबन्ध का कारण है, इसलिए उन्होंने आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन नहीं किया। भगवान् उस आहार से सम्बन्धित कोई भी पाप नहीं करते थे। वे प्रासुक आहार ग्रहण करते थे ॥५८॥
___ २७२. (भगवान् स्वयं वस्त्र या पात्र नहीं रखते थे इसलिए) दूसरे (गृहस्थ या साधु) के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे, दूसरे के पात्र में भी भोजन नहीं करते थे। वे अपमान की परवाह न करके किसी की शरण लिए बिना (अदीनमनस्क होकर) पाकशाला (भोजनगृहों) में भिक्षा के लिए जाते थे ॥५९॥
२७३. भगवान् अशन-पान की मात्रा को जानते थे, वे रसों में आसक्त नहीं थे, वे (भोजन-सम्बन्धी) प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे, मुनीन्द्र महावीर आँख में रजकण आदि पड़ जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते थे और न शरीर को खुजलाते थे ॥६॥
२७४. भगवान् चलते हुए न तिरछे (दाएँ-बाएँ) देखते थे, और न पीछे-पीछे देखते थे, वे मौन चलते थे, किसी के पूछने पर बोलते नहीं थे। वे यतनापूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे ॥६१॥
२७५. भगवान् उस (एक) वस्त्र का भी-(मन से) व्युत्सर्ग कर चुके थे। अतः शिशिर ऋतु में वे दोनों बाँहें फैलाकर चलते थे, उन्हें कन्धों पर रखकर खड़े नहीं होते थे ॥६२॥
२७६. ज्ञानवान् महामाहन भगवान् महावीर ने इस (पूर्वोक्त क्रिया-) विधि के अनुरूप आचरण किया। अनेक प्रकार से (स्वयं आचरित क्रियाविधि) का उपेदश दिया। अतः मुमुक्षुजन कर्मक्षयार्थ इसका अनुमोदन करते हैं ॥६३॥
- ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - अहिंसा का विवेक - सूत्र २६५ से २७६ तक भगवान् की अहिंसायुक्त विवेकचर्या का वर्णन
पुनर्जन्म और सभी योनियों में जन्म का सिद्धान्त-पाश्चात्य एवं विदेशी धर्म पुनर्जन्म को मानने से इन्कार