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नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र २६५-२७६
२८७ करते हैं, चार्वाक आदि नास्तिक तो कतई नहीं मानते, न वे शरीर में आत्मा नाम को कोई तत्त्व मानते हैं, न ही जीव का अस्तित्व वर्तमान जन्म के बाद मानते हैं । परन्तु पूर्वजन्म की घटनाओं को प्रगट कर देने वाले कई व्यक्तियों से प्रत्यक्ष मिलने और उनका अध्ययन करने से परामनोवैज्ञानिक भी इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि पुनर्जन्म है, पूर्वजन्म है, चैतन्य इसी जन्म के साथ समाप्त नहीं होता।
भगवान् महावीर के समय में यह लोक-मान्यता थी कि स्त्री मरकर स्त्री योनि में ही जन्म लेती है, पुरुष मरकर पुरुष ही होता है तथा जो जिस योनि में वर्तमान में है, वह अगले जन्म में उसी योनि में उत्पन्न होगा। पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीव पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीव ही बनेंगे। त्रसकायिक किसी अन्य योनि में उत्पन्न नहीं होंगे, तसयोनि में ही उत्पन्न होंगे। भगवान् ने इस धारणा का खण्डन किया और युक्ति, सूक्ति एवं अनुभूति से यह निश्चित रूप से जानकर प्रतिपादन किया कि अपने-अपने कर्मोदयवश जीव एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है, त्रस, स्थावर रूप में जन्म ले सकता है और स्थावर, त्रस रूप में।' ___भगवती सूत्र में गौतम स्वामी द्वारा यह पूछे जाने पर कि "भगवन् ! यह जीव पृथ्वीकाय के रूप से लेकर त्रसकाय के रूप तक में पहले भी उत्पन्न हुआ है ?"
उत्तर में कहा है - "अवश्य, बार-बार ही नहीं, अनन्त बार सभी योनियों में जन्म ले चुका है। २" इसीलिए कहा गया - "अद थावरा.....अदुवा सव्वजोणिया सत्ता।"
कर्मबन्धन के स्रोतों की खोज और कर्ममुक्ति की साधना - यह निश्चित है कि भगवान् महावीर ने सर्वथा परम्परा की लीक पर न चलकर अपनी स्वतन्त्र प्रज्ञा और अनुभूति से सत्य की खोज करके आत्मा को बाँधने वाले कर्मों से सर्वथा मुक्त होने की साधना की। उनकी इस साधना का लेखा-जोखा बहुत संक्षेप में यहाँ अंकित है। उन्होंने कर्मों के तीन स्रोतों को सर्वथा जान लिया था -
(१) आदानस्रोत - कर्मों का आगमन दो प्रकार की क्रियाओं से होता है - साम्परायिक क्रिया से और ईर्याप्रत्ययिक क्रिया से। अयतनापूर्वक कषाययुक्त प्रमत्तयोग से की जाने वाली साम्परायिक क्रिया से कर्मबन्ध तीव्र होता है, संसारपरिभ्रमण बढ़ता है, जबकि यतनापूर्वक कषाय रहित होकर अप्रमत्तभाव से की जाने वाली ईर्याप्रत्ययक्रिया से कर्मों का बन्धन बहुत ही हल्का होता है, संसारपरिभ्रमण भी घटता है। परन्तु हैं दोनों ही आदानस्रोत।
(२) अतिपातस्रोत - अतिपात शब्द में केवल हिंसा ही नहीं, परिग्रह, मैथुन, चोरी, असत्य आदि का भी ग्रहण होता है। ये आस्रव भी कर्मों के स्रोत हैं, जिनसे अतिपातक (पाप) होता है, वे सब (हिंसा आदि) अतिपात हैं। यही अर्थ चूर्णिकारकसम्मत है.।।
(३) त्रियोगरूप स्रोत - मन-वचन-काया इन तीनों का जब तक व्यापार (प्रवृत्ति) चलता रहेगा, तब तक शुभ या अशुभ कर्मों का स्रोत जारी रहेगा।
यही कारण है कि भगवान् ने अशुभ योग से सर्वथा निवृत्त होकर सहजवृत्या शुभयोग में प्रवृत्ति की। इस प्रकार कर्मों के स्रोतों को बन्द करने के साथ-साथ उन्होंने कर्ममुक्ति की विशेषतः पापकर्मों से सर्वथा मुक्त होने की साधना की।
आचा० शीला० टीका पत्र ३०४ २. 'अयणं भंते ! जीवे पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वे ?' हंता गोयमा ! असई अदुवा अर्णतखुत्तो जाव उववण्णपुव्वे"- भगवती सूत्र १२१७ सूत्र १४० (अंग सु०)
३. आचा० शीला० टीका पत्रांक ३०४