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नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र २६५-२७६
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२७४. अप्पं तिरियं पेहाए अप्पं पिट्ठओ उपेहाए ।
अप्पं बुइए पडिभाणी पंथपेही चरे जतमाणं ॥६१॥ २७५. सिसिरंसि अद्धपडिवण्णे तं वोसज्ज वत्थमणगारे ।
पसारेत्तु ३ बाहुं परक्कमे णो अवलंबियाण के धंसि ॥६२॥ २७६. एस विधी अणुक्कंतो माहणेण मतीमता ।। बहुसो ५ अपडिण्ण भगवया एवं गयंति ॥ ६३॥ त्ति बेमि ।
॥ पढमो उद्देसओ सम्पत्तो ॥ २६५. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद-शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं त्रसकाय - इन्हें - सब प्रकार से जानकर ॥५२॥
२६६. 'ये अस्तित्ववान् हैं ', यह देखकर 'ये चेतनावान् हैं', यह जानकर उनके स्वरूप को भलीभाँति अवगत करके वे भगवान् महावीर उनके आरम्भ का परित्याग करके विहार करते थे ॥५३॥
२६७. स्थावर (पृथ्वीकाय आदि) जीव त्रस (द्वीन्द्रियादि) के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रस जीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं । अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों
२.
'अप्प' आदि पंक्ति का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है - "अप्पमिति अभावे' ण गच्छंतो तिरियं पेहितवां, ण वा पिट्ठतो पच्चवलोगितवां।' - अप्प यहाँ अभाव अर्थ में प्रयुक्त है। अर्थात् - भगवान् चलते समय न तिरछा (दाएँ-बाएँ) देखते थे और न पीछे देखते थे। 'अप्पं वुतिए पडिभाणी' इस प्रकार का पाठान्तर मान कर चूर्णिकार ने अर्थ किया है - "पुच्छिते अप्पं पडिभणति,अभावे दट्टव्वो अप्पसद्दो, मोणेण अच्छति"- पूछने पर अल्प- नहीं बालते थे, यहाँ भी अप्पशब्द अभाव अर्थ में समझना चाहिए। यानी भगवान् मौन हो जाते थे। इसके बदले 'पसारेतु बाहुं पक्कम्म' पाठान्तर मानकर चूर्णिकार ने अर्थ किया है - "बाहुं (हं) पसारिय कमति, णो अवलंबित्ताण कंठंसि, बाहूहि कंठोवलंबितेहिं हिययस्स उब्भा भवति, तेण सभिज्जइ सरीरं, स तु भगवं सतुसारेवि सीते जहापणिहिते बाहूहि परिकमितवां, ण कंठे अवलंबितवां । अर्थात् - भगवान् बाहें (नीचे) पसार कर चलते थे, कंठ में लटका कर नहीं, भुजाओं को कंठ में लटकाने से छाती का उभार हो जाता है, जिससे शरीर एकदम सट जाता है, किन्तु भगवान् शीतऋतु में हिमपात होने पर भी स्वाभाविक रूप से बाँहों को नीचे फैलाए हुए चलते थे, कंठ का सहारा लेकर नहीं। इसके बदले पाठान्तर है - 'अणीकंतो', 'अण्णोक्कतो','यऽणोकंतो'।चूर्णिकार ने अण्णोणोक्कंतो और अणुक्कंतो ये दो पाठ मानकर अर्थ क्रमशः यों किया है - 'चरियाहिगारपडिसमाणणत्थि (त्थं) इमं भण्णति-एस विहि अण्णो (णो) कंतो...अणु पच्छाभावे, जहा अण्णेहिं तित्थगरेहिं कतो, तहा तेणावि, अतो अणुक्तो।' यह विधि अन्याऽनक्रान्त है - यानी दूसरे तीर्थंकरों के मार्ग का अतिक्रमण नहीं किया। चरिताधिकार प्रति सम्मानार्थ यह कहा गया है - एस विधी। - यह विधि अनुक्रान्त है। अनु पश्चाद्भाव अर्थ में है। जैसे अन्य तीर्थंकरों ने किया, वैसे ही उन्होंने भी किया, इसलिए कहाअणुक्कंतो। चूर्णि में पाठान्तर है - अपडिण्णेण वीरेण कासवेण महेसिणा। अर्थात् - अप्रतिज्ञ काश्यपगोत्रीय महर्षि महावीर ने...। बहुसो अपडिण रीयं (य) ति' का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है - 'बहुसो इति अणेगसो पडिण्णो भणितो, भगवता रीयमाणेण रीयता एवं बेमि जहा मया सुतं ।' - बहुसो का अर्थ है - अनेक बार, अपडिण्णो का अर्थ कहा जा चुका है। भगवान् ने (इस चर्या के अनुसार) चलकर....। चूर्णिकार को रीयंति के बदले 'रीयता' पाठ सम्मत मालूम होता है।
४.