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रचना शैली
आचारांग सूत्र में गद्य और पद्य दोनों ही शैली का सम्मिश्रण है। गद्य का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है। दशवैकालिक चूर्णि में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को गद्य के विभाग में रखा है। उसकी शैली चौर्ण पद मानी है। आचार्य हरिभद्र ने भी यही मत व्यक्त किया है। आचार्य भद्रबाहु ने चौर्ण पद की व्याख्या करते हुए लिखा है "जो अर्थबहुल, महार्थ हेतु-निपात और उपसर्ग से गम्भीर बहुपाद अव्यवच्छिन्न गम और नय से विशुद्ध होता है वह चौर्णपद है।"३
प्रस्तुत परिभाषा में बहुपाद शब्द आया है जिसका अर्थ है पाद का अभाव। जिसमें केवल गद्य ही होता है। पर चौर्ण वह है जिसमें गद्य के साथ बहुपाद (चरण) भी होते हैं। आचारांग सूत्र में गद्य के साथ पद्य भी है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में आठवें अध्ययन का आठवां उद्देशक और नवम अध्ययन पद्य रूप में है। शेष छः अध्ययनों में पन्द्रह पद्य तो स्पष्ट रूप से प्राप्त होते हैं। टीकाकार ने जहाँ-जहाँ पर पद्य है, उसका सूचन किया है। केवल ७८ और ७९, इन दो श्लोकों का उल्लेख टीका में नहीं है। तथापि मुनि श्री जम्बूविजयजी ने उसे पद्य रूप में दिया है। सूत्र ९९ पद्यात्मक है ऐसा सूचन अनेक स्थलों पर हुआ है। तथापि उसमें छन्द की दृष्टि से कुछ न्यूनता है। आचारांग में ऐसे अनेक स्थल पद्य रूप में प्रतीत होते हैं पर वे गद्य-रूप में ही आचारांग में व्यवहृत हैं। मनीषियों का मत है कि मूल में वे पद्य होंगे किन्तु आज वे पद्य रूप में व्यवहत नहीं हैं। कितने ही वाक्यों को हम गद्य रूप में भी पढ़कर आनन्द ले सकते हैं और पद्य-रूप में भी। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अधिकांश भाग गद्यरूप में है। पन्द्रहवें अध्ययन में अठारह पद्य प्राप्त होते हैं और सोलहवाँ अध्ययन पद्य-रूप में है। वर्तमान में आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में १४६ पद्य उपलब्ध हैं । समवायांग और नन्दीसूत्र में जो आचारांग का परिचय उपलब्ध है उसमें संख्येय वेष्टक और संख्येय श्लोक बताये हैं।
डाक्टर शुबिंग ने आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पद्यों की तुलना बौद्धत्रिपिटक - सुत्तनिपात के साथ की है। आचारांग के पद्य विविध छन्दों में उपलब्ध होते हैं। उसमें आर्या, जगती, त्रिष्टभ, वैतालिय, अनुष्टुप श्लोक आदि विविध छन्द हैं। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम दो चूलिकाएँ पूर्ण गद्य में हैं, तृतीय चूलिका में भगवान् महावीर के दान-प्रसंग में छः आर्याओं का प्रयोग हुआ है, दीक्षा, शिविका में आसीन होकर प्रस्थान करने का वर्णन ग्यारह आर्याओं में है और जिस समय दीक्षा ग्रहण करते हैं उस समय जन-मानस का चित्रण भी दो आर्याओं में किया गया है। महाव्रतों की भावनाओं का वर्णन अनुष्टप छन्दों में किया गया है। चतुर्थ चूलिका में जो पद्य हैं वे उपजाति प्रतीत होते हैं। सुत्तनिपात के आमगन्ध सुत्त में इस तरह के छन्द के प्रयोग दृग्गोचर होते हैं।
आचरांग की भाषा
सामान्य रूप से जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है, यद्यपि जैन-परम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तन करें तो सूर्य के प्रकाश की भाँति स्पष्ट परिज्ञात होगा कि जैन-परम्परा ने भाषा पर इतना बल नहीं दिया है, उसका यह स्पष्ट मन्तव्य है कि मात्र भाषा ज्ञान से न तो मानव की चित्त-शुद्धि हो सकती है और न आत्म-विकास ही हो सकता है। चित्त-विशुद्धि का मूलकारण सद्विचार है। भाषा विचारों का वाहन है, इसलिए जैन मनीषिगण संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अन्य प्रान्तीय भाषाओं को अपनाते रहे हैं और उनमें विपुल-साहित्य का भी सृजन करते रहे हैं । यही कारण है आचरांगसूत्र की भाषा-शैली में भी परिवर्तन हुआ है। प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा बहुत ही गठी हुई सूत्रात्मक है तो द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा कुछ शिथिल और व्यास-प्रधान है।
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दशवकालिक चूर्णि पृ०७८ दशवैकालिक वृत्ति पृ० ८८ दशवैकालिक नियुक्ति गाथा, १७४
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