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दो अध्ययन दशवैकालिक चूलिका के रूप में स्थापित किये। आवश्यक चूर्णि में दो अध्ययनों का वर्णन है - तो परिशिष्टपर्व में चार अध्ययनों का उल्लेख है। आचार्य हेमचन्द्र ने दो अध्ययनों का समर्थन किस आधार से किया है ? आचारांग-नियुक्ति और दशवैकालिक-नियुक्ति में प्रस्तुत घटना का कोई संकेत नहीं है। फिर वह आवश्यक चूर्णि में किस प्रकार आ गयी यह शोधार्थी के लिए अन्वेषणीय है।
कितने ही निष्ठावान् विज्ञों का अभिमत है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचयिता गणधर सुधर्मा ही हैं क्योंकि समवायांग और नन्दी में आचारांग का परिचय है। उससे यह स्पष्ट है कि वह परिशिष्ट के रूप में बाद में जोड़ा हुआ नहीं है।
नियुक्तिकार ने जो आचारांग का.पद-परिमाण बताया है वह केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध का है। पांच चूलाओं सहित आचारांग की पद संख्या बहुत अधिक है। नियुक्तिकार के प्रस्तुत कथन का समर्थन नन्दी चूर्णि और समवायांग वृत्ति में किया गया है। पर एक ज्वलन्त प्रश्न यह है कि आचारांग के समान अन्य आगमों में भी दो श्रुतस्कन्ध हैं पर उन आगमों में प्रथम श्रुतस्कन्ध की और द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पद-संख्या कहीं पर भी अलग-अलग नहीं बतायी है। केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का पद-परिमाण किस आधार से दिया है, इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार व चूर्णिकार तथा वृत्तिकार मौन हैं। धवला
और अंगपण्णति जो दिगम्बर परम्परा के माननीय ग्रन्थ हैं, इनमें आचारांग की पद-संख्या भी श्वेताम्बर ग्रन्थों की तरह अठारह हजार बतायी है। उन्होंने जिन विषयों का निरूपण किया है वे द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रतिपादित विषयों के साथ पूर्ण रूप से मिलते हैं।
समवायांग और नन्दी में, दृष्टिवाद में चौदह पूर्वो में चार पूर्वो के अतिरिक्त किसी भी अंग की चूलिकाएं नहीं बतायी हैं। जबकि प्रत्येक अंग के श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक, पद और अक्षरों तक की संख्या का निरूपण है। वहाँ पर चार पूर्वो की चूलिकायें बतायीं हैं किन्तु आचारांग की चूलिकाओं का निर्देश नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि चार पूर्वो के अतिरिक्त अन्य किसी भी आगम की चूलिकायें नहीं थीं।
आचारांग और आचार प्रकल्प ये दोनों एक नहीं हैं। क्योंकि आचारांग कहीं से भी नियूंढ नहीं किया गया है, जबकि • आचार-प्रकल्प प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु आचार-नामक बीसवें प्राभृत से उद्धृत है। यह बात नियुक्ति, चूर्णि और वृत्ति में स्पष्ट रूप से आयी है और यह बहुत ही स्पष्ट है कि साध्वाचार के लिए महान उपयोगी होने से चूला न होने पर भी चूला के रूप में उसे स्थान दिया गया है । समवायांग-सूत्र में "आयारस्स भगवओ सचूलियागस्स" यह पाठ आता है। संभव है पाठ में चूलिका शब्द का प्रयोग होने के कारण सन्देह-प्रद स्थिति उत्पन्न हुई हो। जिससे पद संख्या और चूलिका के सम्बन्ध में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रूप में आचारांग से भिन्न आचारांग की चूलिकायें आचाराग्र और आचारांग का परिशिष्ट मानेने की नियुक्तिकार आदि को कल्पना करनी पड़ी हो। ___ यह स्पष्ट है कि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा से द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा बिल्कुल पृथक् है, जिसके कारण चिन्तकों में यह धारणा बनी हुई है कि दोनों के रचयिता पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं। पर आगम के प्रति जो अत्यन्त निष्ठावाने हैं, उनका अभिमत है कि दोनों श्रुतस्कन्धों के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में तात्त्विक-विवेचन की प्रधानता होने से सूत्र-शैली में उसकी रचना की गयी है। जिसके कारण उसके भाव-भाषा और शैली में क्लिष्टता आयी है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साधना रहस्य को व्याख्यात्मक दृष्टि से समझाया गया है, इसलिए उसकी शैली बहुत ही सुगम और सरल रखी गयी है। आधुनिक युग में कितने ही लेखक जब दार्शनिक पहलुओं पर चिन्तन करते हैं उस समय उनकी भाषा का स्तर अलग होता है और जब वे बाल-साहित्य का लेखन करते हैं, उस समय उनकी भाषा पृथक् होती है। उसमें वह लालित्य नहीं होता और न वह गम्भीरता ही होती है। यही बात प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। ____ सभी मूर्धन्य मनीषियों ने इस सत्य को एक स्वर से स्वीकारा है कि आचारांग सर्वाधिक प्राचीन आगम है। उसमें जो आचार का विश्लेषण हुआ है वह अत्यधिक मौलिक है।
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