SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह स्पष्ट है कि भाषा के स्वरूप में परिवर्तन होता आया है। आचार्य हेमचन्द्र ने आगमों की भाषा को आर्ष-प्राकृत कहा है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि वैदिक परम्परा में ऋषियों के शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया किन्तु अर्थ की सुरक्षा पर उतना बल नहीं दिया गया है। जिसके फलस्वरूप वेदों के शब्द प्रायः सुरक्षित हैं किन्तु अर्थ की दृष्टि से विज्ञों में पर्याप्त मत-भेद है, वैदिक विज्ञों ने आज दिन तक शब्दों की सुरक्षा के लिए बहुत ही प्रयास किया है पर अर्थ की दृष्टि से कोई विशेष प्रयास नहीं हुआ। पर जैन-परम्परा ने शब्द की अपेक्षा अर्थ पर विशेष बल दिया है। इस कारण पाठभेद तो मिलते हैं, किन्तु अर्थभेद नहीं मिलता। आचारांगसूत्र में भी पाठ-भेद की एक लम्बी परम्परा है। विभिन्न प्रतियों में एक ही पाठ के विविध रूप मिलते हैं। विशेष जिज्ञासु शोधकर्ताओं को मुनि जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित आचारांगसूत्र के अवलोकन की मैं प्रेरणा करता है। प्रस्तुत सम्पादन में भी महत्त्वपूर्ण पाठान्तर और उनकी भिन्न अर्थवत्ता का सूचन कर नई दृष्टि दी है। वस्तार-भय से उनकी चर्चा मैं यहाँ नहीं कर रहा हूँ, पाठक स्वयं इसे पढ़कर लाभ उठायें। हाँ, एक बात और है कि वेद के शब्दों में मन्त्रों का आरोपण किया गया, जिससे वेद के मन्त्र सुरक्षित रह गये। पर जैनागमों में मन्त्र-शक्ति का आरोपण न होने से अर्थ सुरक्षित रहा है, पर शब्द नहीं। जैन आगमों की भाषा में परिवर्तन का एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि जैन आगम प्रारम्भ में लिखे नहीं गये थे। सुदीर्घकाल तक कण्ठस्थ करने की परम्परा रही। समय-समय पर द्वादश वर्षों के दुष्कालों ने आगम के बहुत अध्याय विस्मृत करा दिये। उनकी संयोजना के लिए अनेक वाचनाएँ हुई। वीर निर्वाण सं. ९८० में वल्लभीपुर नगर में देवाद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में आगमों को लिपिबद्ध किया गया। उसके पश्चात् आगमों का निश्चित-रूप स्थिर हो गया। दार्शनिक विषय ___ आचारांगसूत्र में जैनदर्शन के मूलभूत तत्त्व गर्भित हैं, आचारांग के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है। उस युग के अन्य दार्शनिकों के विचार से श्रमण भगवान् महावीर की विचारधारा अत्यधिक भिन्न थी। पाली-पिटकों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के समय अन्य अनेक श्रमण परम्पराएँ भी थीं। उन श्रमणों की विचारधारा क्रियावादी, अक्रियावादी के रूप में चल रही थीं। जो कर्म और उसके फल को मानते थे, वे क्रियावादी थे, जो उसे नहीं मानते थे वे अक्रियावादी थे। भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध ये दोनों ही क्रियावादी थे। पर इन दोनों के क्रियावाद में अन्तर था। तथागत बुद्ध ने क्रियावाद को स्वीकार करते हुए भी शाश्वत् आत्मवाद को स्वीकार नहीं किया। जबकि भगवान् महावीर ने आत्मवाद की मूल भित्ति पर ही क्रियावाद का भव्य-भवन खड़ा किया है। जो आत्मवादी है वह लोकवादी है और जो लोकवादी है,वह कर्मवादी है, जो कर्मवादी है वह क्रियावादी है। इस प्रकार भगवान् महावीर का क्रियावाद तथागत बुद्ध से पृथक् है। कर्मवाद को प्रधानता देने के कारण ईश्वर, ब्रह्मा आदि से संसार की उत्पत्ति नहीं मानी गई। सष्टि अनादि है, अतएव उसका कोई कर्ता नहीं है। भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा- जब तक कर्म है, आरम्भ-समारम्भ है, हिंसा है, तब तक संसार में परिभ्रमण है, कष्ट है। जब आत्मा कर्म-समारम्भ का पूर्ण रूप से परित्याग करता है, तब उसके संसार-परिभ्रमण की परम्परा रुक जाती है। श्रमण वही है जिसने कर्म-समारम्भ का परित्याग किया है। कर्म-समारम्भ का निषेध करने का मूल कारण यह है-इस विराट् विश्व में जितने भी जीव हैं उन्हें सुखप्रिय है, कोई भी जीव दुःखों की इच्छा नहीं करता। जीवों को जो दुःख का निमित्त बनता है वही कर्म है, हिंसा है। यह जानना आवश्यक है कि जीव कौन है और कहाँ पर है ? आचारांग में जीव-विद्या को लेकर गहराई से चिन्तन हुआ है, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति, त्रसकाय और वायुकाय इन जीवों का परिचय कराया गया है ५, यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि अन्य आगम साहित्य में वायु को पांच स्थावरों के साथ गिना है, पर यहाँ पर आचारांग सूत्र १।३ २. आचारांग १०९ ३. आचारांग ६, १३ ४. आचारांग ८० ५. आचारांग ४८,४६, ९, १, १३, १३ [३१]
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy