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अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक
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अन्दर किया जाता है तो निर्धारित होता है।' अर्थात् प्राणत्याग के पश्चात् शरीर का दाहसंस्कार किया जाता है और बस्ती से बाहर जंगल में किया जाता है तो अनिर्धारिम होता है- दाहसंस्कार नहीं किया जाता । नियमतः यह अनशन प्रतिकर्म है। इसका तात्पर्य यह है कि पादपोपगमन अनशन में साधक पादप-वृक्ष की तरह निश्चल - निःस्पन्द रहता । वृत्तिकार ने बताया है- पादपोपगमन अनशन का साधक ऊर्ध्वस्थान से बैठता है; पार्श्व से नहीं, अन्य स्थान से भी नहीं। वह जिस स्थान से बैठता या लेटता है, उसी स्थान में वह जीवन पर्यन्त स्थिर रहता है, स्वतः वह अन्य स्थान में नहीं जाता। इसीलिए कहा गया है - 'सव्वगायनिरोहेऽवि ठाणातो न वि उब्भमे ।'
प्रायोपगमन में ७ बातें विशेष रूप से आचरणीय होती हैं - (१) निर्धारित स्थान से स्वयं चलित न होना, (२) शरीर का सर्वथा व्युत्सर्ग, (३) परीषहों और उपसर्गों से जरा भी विचलित न होना, अनुकूल-प्रतिकूल को समभाव से सहना, (४) इहलोक - परलोक सम्बन्धी काम-भोगों में जरा-सी भी आसक्ति न रखना, (५) सांसारिक वासनाओं और लोलुपताओं को न अपनाना, (६) शासकों या दिव्य भोगों के स्वामियों द्वारा भोगों के लिए आमन्त्रित किए जाने पर भी ललचाना नहीं, (७) सब पदार्थों से अनासक्त होकर रहना । १
दिगम्बर परम्परा में प्रायोपगमन के बदले प्रायोग्यगमन एवं पादपोपगमन के स्थान पर पादोपगमन शब्द मिलते हैं । भव का अन्त करने के योग्य संहनन और संस्थान को प्रायोग्य कहते हैं । प्रायोग्य की प्राप्ति होनाप्रायोग्यगमन है। पैरों से चलकर योग्य स्थान में जाकर जो मरण स्वीकारा जाता है, उसे पादोपगमन कहते हैं । यह अनशनं आत्म-परोपकार निरपेक्ष होता है। इसमें स्व-पर दोनों के प्रयोग (सेवा-शुश्रूषा) का निषेध है। इस अनशन में - साधक मल-मूत्र का भी निराकरण न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है। कोई उस पर सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति आदि फेंके या कूड़ाकर्कट फेंके, अथवा गंध पुष्पादि से पूजा करे या अभिषेक करे तो न वह रोष करता है, न प्रसन्न होता है, न ही उनका निराकरण करता है; क्योंकि वह इस अनशन में स्व- पर प्रतीकार से रहित होता । ३
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भगवती सूत्र शतक २५ उ० ७ का मूल एवं टीका देखिए
'से किं तं पाओवगमणे ?"
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'पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा - णीहारिमे या अणीहारिमे य णियमा अपडिक्कमे । से तं पाओवगमणे ।'
आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक २९४, २९५
(क) भगवती आराधना वि० २९ । ११३ |६
(ख) धवला १ । १ । २३ । ४
(ग) सो सल्लेहियदेहो जम्हा पाओवगमणमुवजादि ।
उच्चारादि वि किंचणमवि णत्थि पवोगदो तम्हा ॥। २०६५ ॥ पुढवी आऊ तेऊ वणप्फदित तेसु जद्धि वि साहरिदो । वोसचत्त हो अधायुगं पालए तत्थ ।। २०६६ ॥ मज्जणयगंध पुप्फोवयार पडिचारणे किरंत । वोस चत्तदेहो अधायुगं पालए तधवि ॥ २०६७ ॥ वोसचत्तदेहो दु णिक्खिवेज्जो जहिं जधा अंगं । जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंगं ण चालेज ॥ २०६८ ॥ - भगवती आ० मूल