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________________ २७२ आचारोंग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध २५३. सव्वट्ठेहिं अमुच्छिए आयुकालस्स पारए । तितिक्खं परमं णच्चा विमोहण्णतरं हितं ॥४०॥त्ति बेमि। ॥अष्टम विमोक्षाध्ययनं समाप्तम् ॥ २४७. यह प्रायोपगमन अनशन भक्तप्रत्याख्यान से और इंगितमरण से भी विशिष्टतर है और विशिष्ट यातना से पार करने योग्य है । जो साधु इस विधि से (इसका) अनुपालन करता है, वह सारा शरीर अकड़ जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता ॥ ३४॥ २४८. यह (प्रायोपगमन अनशन) उत्तम धर्म है। यह पूर्व स्थानद्वय-भक्तप्रत्याख्यान और इंगितमरण से प्रकृष्टतर ग्रह (नियन्त्रण) वाला है। प्रायोपगमन अनशन साधक (माहन-भिक्षु) जीव-जन्तुरहित स्थण्डिलस्थान का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ अचेतनवत् स्थिर होकर रहे ॥३५॥ २४९. अचित्त (फलक, स्तम्भ आदि) को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित कर दे। शरीर का सब प्रकार से व्युत्सर्ग कर दे। परीषह उपस्थित होने पर ऐसी भावना करे - "यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब परीषह (-जनित दुःख मुझे कैसे होंगे) ? ॥ ३६॥ २५०. जब तक जीवन (प्राणधारक) है, तब तक ही ये परीषह और उपसर्ग (सहने) हैं, यह जानकर संवृत्त (शरीर को निश्चेष्ट बनाकर रखने वाला) शरीरभेद के लिए (ही समुद्यत) प्राज्ञ (उचित-विधिवेत्ता) भिक्षु उन्हें (समभाव से) सहन करे॥ ३७॥ २५१. शब्द आदि सभी काम विनाशशील हैं, वे प्रचुरतर मात्रा में हों तो भी भिक्षु उनमें रक्त न हो। ध्रुव वर्ण (शाश्वत मोक्ष या निश्चल संयम के स्वरूप) का सम्यक् विचार करके भिक्षु इच्छा-लोलुपता का भी सेवन न करे ॥ ३८॥ २५२. शासकों द्वारा अथवा आयुपर्यन्त शाश्वत रहने वाले वैभवों या कामभोगों के लिए कोई भिक्षु को निमन्त्रित करे तो वह उसे (मायाजाल) समझे। (इसी प्रकार) दैवी माया पर भी श्रद्धा न करे । वह माहन-साधु उस समस्त माया को भलीभाँति जानकर उसका परित्याग करे॥३९॥ २५३. दैवी और मानुषी - सभी प्रकार के विषयों में अनासक्त और मृत्युकाल का पारगामी वह मुनि तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ जानकर हितकर विमोक्ष (भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण, प्रायोपगमन रूप त्रिविध विमोक्ष में से) किसी एक विमोक्ष का आश्रय ले॥ ४०॥ - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - प्रायोपगमन रूप : स्वरूप, विधि सावधानी और उपलब्धि - सू० २४७ से २५३ तक प्रायोपगमन अनशन का निरूपण किया गया है। प्रायोपगमन या पादपोपगमन अनशन का लक्षण सातवें उद्देशक के विवेचन में बता चुके हैं। भगवतीसूत्र में पादपोपगमन के स्वरूप के सम्बन्ध में जब पूछा गया तो उसके उत्तर में भगवान् महावीर ने बताया कि पादपोपगमन दो प्रकार का है - निर्हारिम और अनिर्हारिम।' यह अनशन यदि ग्राम आदि (बस्ती) के १. (क) देखिए अभिधान राजेन्द्र कोष भा० ५ पृ० ८१९-८२० (ख) देखें, सूत्र २२८ का विवेचन पृ० २८८ पर
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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