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________________ आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध उससे या दुध्यान एवं दुष्ट योगों से अपने आपको हटा ले और उपस्थित सभी दुःखस्पर्शों को सहन करे ॥ ३३ ॥ विवेचन - इंगितमरण : स्वरूप, सावधानी और आन्तरिकविधि - सूत्र २३९ से २४६ तक की गाथाओं में इंगितमरण का निरूपण किया गया है, जो समाधिमरण रूप अनशन का द्वितीय प्रकार है । भक्तप्रत्याख्यान से यह विशिष्टतर है। इसकी भी पूर्व तैयारी तथा संकल्प करने तक की क्रमश: सब विधि भक्तप्रत्याख्यान की तरह ही समझ लेनी चाहिए। इतना ही नहीं, भक्तप्रत्याख्यान में जिन सावधानियों का निर्देश किया है, उनसे इस अनशन में भी सावधान रहना आवश्यक है। २७० इंगितमरण में कुछ विशिष्ट बातों का निर्देश शास्त्रकार ने किया है, जैसे कि इंगितमरण साधक अपना अंगसंचार, उठना, बैठना, करवट बदलना, शौच, लघुशंका आदि समस्त शारीरिक कार्य स्वयं करता है। इतना ही नहीं, दूसरों के द्वारा करने, कराने, दूसरे के द्वारा किसी साधक के निमित्त किये जाते हुए का अनुमोदन करने का भी वह मन, वचन, काया से त्याग करता है। वह संकल्प के समय निर्धारित भूमि में ही गमनागमन आदि करता है, उससे बाहर नहीं। वह स्थण्डिलभूमि भी जीव-जन्तु, हरियाली आदि से रहित हो, जहाँ वह इच्छानुसार बैठे, लेटे या सो सके। जहाँ तक हो सके, वह अंगचेष्टा कम से कम करे। हो सके तो वह पादपोपगमन की तरह अचेतवत् सर्वथा निश्चेष्ट-निस्पन्द होकर रहे । यदि बैठा-बैठा या लेटा - लेटा थक जाये तो जीव-जन्तुरहित काष्ठ की पट्टी आदि किसी वस्तु का सहारा ले सकता है। किन्तु किसी भी स्थिति में आर्तध्यान या राग-द्वेषादि का विकल्प जरा मन में न आने दे । दिगम्बर परम्परा में यह ‘इंगितमरण' के नाम से भी प्रसिद्ध है । भक्तपरिज्ञा में जो प्रयोगविधि कही गयी है, वही यथासम्भव इस मरण में भी समझनी चाहिए । "इसमें मुनिवर शौच आदि शारीरिक तथा प्रतिलेखन आदि धार्मिक क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं। जगत् के सम्पूर्ण पुद्गल या दुःखरूप या सुखरूप परिणमित होकर उन्हें सुखी या दुःखी करने को उद्यत हों, तो भी उनका मन (शुक्ल) ध्यान से च्युत नहीं होता। वे वाचना, पृच्छना, धर्मोपदेश, इन सबका त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं। मौनपूर्वक रहते हैं । तप के प्रभाव से प्राप्त लब्धियों का उपयोग तथा रोगादि का प्रतीकार नहीं करते। पैर में काँटा या नेत्र में रजकण पड़ जाने पर भी वे स्वयं नहीं निकालते । प्रायोपगमन अनशन-रूप विमोक्ष १. २. ३. २४७. अयं चाततरे सिया जे एवं अणुपालए । सव्वगायणिरोधे वि ठाणातो वि उब्भमे ॥ ३४ ॥ आचा० शीला० टीका पत्रांक २९१-२९२ जो भत्तपदिण्णा उवक्कमो वण्णिदो सवित्थारो । सो चेव जधाजोग्गो उवक्कमो इंगिणीए वि ॥२०३० ॥ ठिच्चा निसिदित्ता वा तुवट्टिदूण व सकायपडिचरणं । सयमेव निरुवसग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयवं ॥२०४१ ॥ सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ । उच्चारादीणि तथा सयमेव विकिंचदे विधिणा ॥२०४२ ॥ - भगवती आराधना 'अयं चाततरे सिया' का अर्थ चूर्णिकार ने किया है - "अंत (अन्त) तरो, आतरा वा आततरो। आयतरे दढगाहतरे धम्मे
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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