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अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र २४०-२४६
२६९ २४३. अभिक्कमे पडिक्कमे संकुचए पसारए ।
कायसाहारणट्ठाए एत्थं वा वि अचेतणे ॥ ३०॥ २४४. परिक्कमे परिकिलंते अदुवा चिटे अहायते ।
ठाणेण परिकिलंते णिसीएज य अंतसो ॥ ३१॥ २४५. आसीणेऽणेलिसं मरणं इंदियाणि समीरते ।
कोलावासं समासज्ज वितहं पादुरेसए ॥ ३२॥ २४६. जतो वजं समप्पजे ण तत्थ अवलंबए ।
ततो उक्कसे अप्पाणं सव्वे फासेऽधियासए ॥३३॥ २४०. ज्ञात-पुत्र भगवान् महावीर ने भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण अनशन का यह आचार-धर्म बताया है। इस अनशन में भिक्षु (मर्यादित भूमि के बाहर) किसी भी अंगोपांग के व्यापार (संचार) का, अथवा उठने-बैठने आदि की क्रिया में अपने सिवाय किसी दूसरे के सहारे (परिचर्या) का (तीन करण, तीन योग से) मन, वचन और काया से तथा कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करे ॥ २७॥
२४१. वह हरियाली पर शयन न करे, स्थण्डिल (हरित एवं जीव-जन्तुरहित स्थल) को देखकर वहाँ सोए। वह निराहार भिक्षु बाह्य और आभ्यन्तर उपधि का व्युत्सर्ग करके भूख-प्यास आदि परीषहों तथा उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे ॥ २८॥
२४२. आहारादि का परित्यागी मुनि इन्द्रियों से ग्लान (क्षीण) होने पर समित (यतनासहित, परिमित मात्रायुक्त) होकर हाथ-पैर आदि सिकोड़े (पसारे); अथवा शमिता - शान्ति या समता धारण करे। जो अचल (अपनी प्रतिज्ञा पर अटल) है तथा समाहित (धर्म-ध्यान तथा शुक्ल-ध्यान में मन को लगाये हुए) है, वह परिमित भूमि में शरीर-चेष्टा करता हुआ भी निन्दा का पात्र नहीं होता ॥ २९॥
२४३. (इस अनशन में स्थित मुनि बैठे-बैठे या लेटे-लेटे थक जाये तो) वह शरीर-संधारणार्थ गमन और आगमन करे, (हाथ-पैर आदि को) सिकोड़े और पसारे। (यदि शरीर में शक्ति हो तो) इस (इंगितमरण अनशन) में भी अचेतन की तरह (निश्चेष्ट होकर) रहे ॥३०॥
२४४. (इस अनशन में स्थित मुनि) बैठा-बैठा थक जाये तो नियत प्रदेश में चले, या थक जाने पर बैठ जाए, अथवा सीधा खड़ा हो जाये, या सीधा लेट जाये। यदि खड़े होने में कष्ट होता हो तो अन्त में बैठ जाए ॥ ३१ ॥
२४५. इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यक्प से संचालित करे। (यदि उसे ग्लानावस्था में सहारे के लिए किसी काष्ठ-स्तम्भ या पट्टे की आवश्यकता हो तो) घुन-दीमकवाले काष्ठ-स्तम्भ या पट्टे का सहारा न लेकर घुन आदि रहित व निश्छिद्र काष्ठ-स्तम्भ या पट्टे का अन्वेषण करे॥३२॥
२४६. जिससे वज्रवत् कर्म या वर्ण्य - पाप उत्पन्न हों, ऐसी घुण, दीमक आदि से युक्त वस्तु का सहारा न ले।
१.
चूर्णिकार ने इसके बदले 'आसीणेमणेलिसं' पाठ मानकर अर्थ किया है - "आसीण इति उदासीणो अहवा धम्म अस्सितो।" - अर्थात् आसीन यानी उदासीन अथवा धर्म के आश्रित । 'पादुजेतेसते' पाठान्तर मान्य करके चूर्णिकार ने अर्थ किया है - "पादु पकास अवट्ठितं, तं.... एसति"- अर्थात् - प्रादुः का अर्थ है प्रकट (प्रकाश) में अवस्थित, उसकी एषणा करे।