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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध 'किं चुवक्कम जाणे...' - यह गाथा भी संलेखना काल में सावधानी के लिए है। इसका तात्पर्य यह है कि संलेखना काल के बीच में ही यदि आयुष्य के पुद्गल सहसा क्षीण होते मालूम दें तो विचक्षण साधक को उसी समय बीच में संलेखना क्रम छोड़कर भक्तप्रत्याख्यान आदि अनशन स्वीकार कर लेना चाहिए। भक्तप्रत्याख्यान की विधि पहले बताई जा चुकी है। इसका नाम भक्तपरिज्ञा भी है।'
संलेखना काल पर्ण होने के बाद - सत्र २३५ से भक्तप्रत्याख्यान आदि में से किसी एक अनशन को ग्रहण करने का विधान प्रारम्भ हो जाता है। संलेखनाकाल पूर्ण हो जाने के बाद साधक को गाँव में या गाँव से बाहर स्थण्डिलभूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके जीव-जन्तुरहित निरवद्य स्थान में घास का संथारा-बिछौना बिछाकर पूर्वोक्त विधि से अनशन का संकल्प कर लेना चाहिए। भक्त प्रत्याख्यान को स्वीकार कर लेने के बाद जो भी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग या परीषह आयें उन्हें समभावपूर्वक सहना चाहिए। गृहस्थाश्रमपक्षीय या साधुसंघीय पारिवारिक जनों के प्रति मोहवश आर्तध्यान न करना चाहिए, न ही किसी पीड़ा देने वाले मनुष्य या जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प आदि प्राणी से घबरा कर रौद्रध्यान करना चाहिए। डांस, मच्छर आदि या सांप, बिच्छू आदि कोई प्राणी शरीर पर आक्रमण कर रहा हो, उस समय भी विचलित न होना चाहिए, न स्थान बदलना चाहिए। अनशन साधक स्वयं को आस्रवों से शरीरादि तथा राग-द्वेष-कषायादि से बिलकुल मुक्त समझे। जीवन के अन्त तक शुभ अध्यवसायों में लीन रहे। २
इंगितमरणरूप विमोक्ष और यह इंगितमरण पूर्वगृहीत (भक्तप्रत्याख्यान) से विशिष्टतर है। इसे विशिष्ट ज्ञानी , (कम से कम नौ पूर्व का ज्ञाता गीतार्थ) संयमी मुनि ही प्राप्त कर सकता है। इंगितमरणरूप विमोक्ष २४०. अयं से अवरे धम्मे णायपुत्तेण साहिते ।
आयवजं पडियारं विजहेजा तिधा तिधा ॥ २७॥ २४१. हरिएसु ण णिवजेजा थंडिलं मुणिआ सए ।
विउसिज अणाहारो पुट्ठो तत्थऽधियासाए ॥२८॥ २४२. इंदिएहिं गिलायंतो समियं साहरे मुणी ५ ।
तहावि से अगरहे अचले जे समाहिए ॥ २९॥
आचा० शीला० टीका पत्रांक २९० आचा० शीला० टीका पत्रांक २९१ के आधार पर । 'मुणिआसए' के बदले चूर्णि में 'मुणी आसए' पाठ है, अर्थ किया गया है-मुणी पुव्वभणितो, आसीत आसए। अर्थात् - पूर्वोक्त मुनि (स्थण्डिलभूमि पर) बैठे। 'विउसिज' के बदले वियोसज्ज, वियोसेज, विउसेज, विउसज, विओसिज्ज आदि पाठान्तर मिलते हैं, अर्थ प्रायः एक समान है। इसके बदले चूर्णिकार ने 'समितं साहरे मुणी' पाठ मानकर अर्थ किया है - "संकुडितो परिकिलंतो वा ताहे सम्मं पसारेइ, पसारिय किलंतो वा पमज्जित्ता साहरइ।" इन्द्रियों (हाथ-पैर आदि) को सिकोड़ने में ग्लानि-बैचेनी हो तो उन्हें सम्यक्रूप (ठीक तरह) से पसार ले। पसारने पर भी पीड़ा होती हो तो उसका प्रमार्जन करके समेट ले।