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________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक: सूत्र २३० २३९ २६७ तत्पश्चात् फिर चार वर्ष तक उसी तरह विचित्र तप करता है, पारणा के दिन विगय रहित (रस रहित) आहार लेता है । उसके बाद दो वर्ष तक एकान्तर तप करता है, पारणा के दिन आयम्बिल तप करता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम ६ मा तक उपवास या बेला तप करता है, द्वितीय ६ मास में विकृष्ट तप - तेला - चोला आदि करता है । पारणे में कुछ ऊनोदरीयुक्त आयम्बिल करता है। उसके पश्चात् १२ वें वर्ष में कोटी - सहित लगातार आयम्बिल करता है, पारणा के दिन आयंबिल किया जाता है। बारहवें वर्ष में साधक भोजन में प्रतिदिन एक - एक ग्राम को कम करते-करते एक सिक्थ भोजन पर आ जाता है । १ बारहवें वर्ष के अन्त में वह अर्धमासिक या मासिक अनशन या भक्तप्रत्याख्यान आदि कर लेता है। दिगम्बर परम्परा में भी आहार को क्रमशः कम करने के लिए उपवास, आचाम्ल, वृत्ति-संक्षेप, फिर रसवर्जित आदि विविध तप करके शरीर संलेखना करने का विधान है। यदि आयु और शरीर शक्ति पर्याप्त हो तो साधक बारह भिक्षु प्रतिमाएँ स्वीकार करके शरीर को कृश करता है । शरीर संलेखना के साथ राग-द्वेष- कषायादि रूप परिणामों की विशुद्धि अनिवार्य है, अन्यथा केवल शरीर को कृश करने से संलेखना का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता । . २ संलेखना के पांच अतिचारों से सावधान - संलेखना क्रम में जीवन और मरण की आकांक्षा तो बिल्कुल ही छोड़ देनी चाहिए, यानी 'मैं अधिक जीऊँ या शीघ्र ही मेरी मृत्यु हो जाय तो इस रोगादि से पिंड छूटे, ' ऐसा विकल्प मन में नहीं उठना चाहिए। काम भोगों की तथा इहलोक - परलोक सम्बन्धी कोई भी आकांक्षा या निदान नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि संलेखना के ५ अतिचारों से सावधान रहना चाहिए। ४ 'आरम्भाओ तिउट्टइ' - इस वाक्य में आरम्भ शब्द हिंसा अर्थ में नहीं है, किन्तु शरीर धारण करने के लिए आहार-पानी के अन्वेषण आदि की जो पद्धतियाँ हैं, उन्हें भी आरम्भ शब्द से सूचित किया है। साधक उनसे सम्बन्ध तोड़ देता है, यानी अलग रहता है। हिंसात्मक आरम्भ का त्याग तो मुनि पहले से ही कर चुका होता है, इस समय तो वह संलेखना -संथारा की साधना में संलग्न है, इसलिए आहारादि की प्रवृत्तियों से विमुक्त होना आरम्भ से मुक्ति है। यदि वह आहारादि की खटपट में पड़ेगा तो वह अधिकाधिक आत्मचिन्तन नहीं कर सकेगा । ५ - यहाँ चूर्णिकार कम्मुणाओ तिउट्टइ ऐसा पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं, अष्टविध कर्मों को तोड़ता है- तोड़ना प्रारम्भ कर देता है। 'अह भिक्खु गिलाएज्जा..... ' - वृत्तिकार ने इस सूत्रपंक्ति के फलितार्थ प्रस्तुत किए हैं - (१) संलेखना - साधना में स्थित भिक्षु को आहार में कमी कर देने से कदाचित् आहार के बिना मूर्च्छा-चक्कर आदि ग्लानि होने लगे तो संलेखना-क्रम को छोड़कर विकृष्ट तप न करके आहार सेवन करना चाहिए। (२) अथवा आहार करने से अगर ग्लानि - अरुचि होती हो तो भिक्षु को आहार के समीप ही नहीं जाना चाहिए। अर्थात् - यह नहीं सोचना चाहिए कि 'कुछ दिन संलेखना क्रम तोड़कर आहार कर लूँ'; फिर शेष संलेखना क्रम पूर्ण कर लूँगा, अपितु आहार करने के विचार को ही पास में नहीं फटकने देना चाहिए। १. २. ३. ४. ५. अभिधान राजेन्द्र कोष भा० ७ पृ० २१८, नि० पं० व० आ० चू० भगवती आराधना मू० २४६ से २४९, २५७ से २५९ सागारधर्मामृत ८ । २३ सू० २३२ में इसका उल्लेख है आचा० शीला० टीका पत्रांक २८९ संलेखना के ५ अतिचार - इहलोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग जीविताशंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रयोग और कामभोगा शंसाप्रयोग । - आवश्यक अ० ५ हारि० वृत्ति पृ० ८३८ आचा० शीला० टीका पत्रांक २८९ ६. आचा० शीला० टीका पत्रांक २९०
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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