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________________ अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र २२८ २६१ २२८. (शरीर-विमोक्ष : संलेखना सहित प्रायोपगमन अनशन के रूप में) - जिस भिक्षु के मन में यह अध्यवसाय होता है कि मैं वास्तव में इस समय (आवश्यकक्रिया करने के लिए) इस (अत्यन्त जीर्ण एवं अशक्त) शरीर को क्रमशः वहन करने में ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूँ। वह भिक्षु क्रमशः आहार का संक्षेप करे। आहार को क्रमशः घटाता हुआ कषायों को भी कृश करे। यों करता हुआ समाधिपूर्ण लेश्या - (अन्तःकरण की वृत्ति) वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय, दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले। ___ इस प्रकार संलेखना करने वाला वह भिक्षु (शरीर में थोड़ी-सी शक्ति रहते ही) ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर (खान), आश्रम, सन्निवेश (मुहाला या एक जाति के लोगों की बस्ती), निगम या राजधानी में प्रवेश करके (सर्वप्रथम) घास की याचना करे। जो घास. प्राप्त हुआ हो, उसे लेकर ग्राम आदि के बाहर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जहाँ कीड़ों के अंडे, जीव-जन्तु, बीज, हरित, ओस, काई, उदक, चीटियों के बिल, फफूंदी, गीली मिट्टी या दल-दल या मकड़ी के जाले न हों, ऐसे स्थान को बार-बार प्रतिलेखन (निरीक्षण) कर फिर उसका कई बार प्रमार्जन. (सफाई) करके घास का बिछौना करे। घास का बिछौना बिछाकर इसी समय शरीर, शरीर की प्रवृत्ति और गमनागमन आदि ईर्या का प्रत्याख्यान (त्याग) करे (इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन करके शरीर विमोक्ष करे)। यह (प्रायोपगमन अनशन) सत्य है। इसे सत्यवादी (प्रतिज्ञा पर अन्त तक दृढ़ रहने वाला) वीतराग, संसारपारगामी, अनशन को अन्त तक निभायेगा या नहीं ? इस प्रकार की शंका से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, जीवादि पदार्थों का सांगोपांग ज्ञाता, अथवा समस्त प्रयोजनों (बातों) से अतीत (परे), परिस्थितियों से अप्रभावित (अनशन-स्थित-मुनि प्रायोपगमन-अनशन को स्वीकार करता है)। वह भिक्षु प्रतिक्षण विनाशशील शरीर को छोड़ कर, नाना प्रकार के उपसर्गों और परीषहों पर विजय प्राप्त करके ('शरीर और आत्मा पृथक्-पृथक् हैं') इस (सर्वज्ञप्ररूपित भेद-विज्ञान) में पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर अनशन की (शास्त्रीय विधि के अनुसार) अनुपालना करे। ऐसा (रोगादि आतंक के कारण प्रायोपगमन स्वीकार) करने पर भी उसकी यह काल-मृत्यु (स्वाभाविक मृत्यु) होती है । उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया (समस्त कर्मक्षय) करने वाला भी हो सकता है। ___ इस प्रकार यह (प्रायोपगमन के रूप में किया गया शरीर-विमोक्ष) मोहमुक्त भिक्षुओं का आयतन (आश्रय) हितकर, सुखकर, क्षमारूप तथा समयोचित, निःश्रेयस्कर और जन्मान्तर में भी साथ चलने वाला है। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - प्रायोपगमन अनशन स्वरूप, विधि और माहात्म्य - प्रस्तुत सूत्र में समाधिमरण के तीसरे अनशन का वर्णन है। इसके दो नाम मिलते हैं - प्रायोपगमन और पादपोपगमन। प्रायोपगमन का लक्षण है - जहाँ और जिस रूप में इसके साधक ने अपना अंग रख दिया है, वहाँ और उसी रूप में वह आयु की समाप्ति तक निश्चल पड़ा रहता है। अंग को बिल्कुल हिलाता-डुलाता नहीं। 'स्व' और 'पर' १. भगवती आराधना मू० २०६३ से २०७१
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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