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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध जाती है। उससे कर्मों की निर्जरा होती है, केवल शारीरिक सेवा ही नहीं, समाधिमरण या संलेखना की साधना के समय स्वाध्याय, जप, वैचारिक पाथेय, उत्साह-संवर्द्धन आदि के द्वारा परस्पर सहयोग एवं उपकार की भावना भी कर्म-विमोक्ष में बहुत सहायक है। सेवा भावना से साधक की साधना तेजस्वी और अन्तर्मुखी बनती है।
परस्पर वैयावृत्य के छह प्रकल्प - इस (२२७) सूत्र में साधक के द्वारा अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार की जाने वाली ६ प्रतिज्ञाओं का उल्लेख है -
(१) स्वयं दूसरे साधुओं को आहार लाकर दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ लूँगा। (२) दूसरों को लाकर दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ नहीं लूंगा। (३) स्वयं दूसरों को लाकर नहीं दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ लूँगा। (४) न स्वयं दूसरों को लाकर दूंगा, न ही उनके द्वारा लाया हुआ लूँगा।
(५) आवश्यकता से अधिक कल्पानुसार यथाप्राप्त आहार में से निर्जरा एवं परस्पर उपकार की दृष्टि से साधर्मिकों की सेवा करूँगा।
(६) उन साधर्मिकों से भी इसी दृष्टि से सेवा लूँगा। २
इन्हें चूर्णिकार ने प्रतिमा तथा अभिग्रह विशेष बताया है। संलेखना-पादपोपगमन अनशन
__२२८. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए.इमं सरीरगं अणुपुब्वेणं परिवहित्तए से अणुपुव्वेणं आहार संवदेज्जा, अणुपुव्वेणं आहारं संवदे॒त्ता कसाए पतणुए समाहियच्चे । फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहाणिं वा तणाई जाएजा, तणाई जाएत्ता से त्तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे ५ जाव तणाइं संथरेजा, [तणाई संथरेत्ता] एत्थ वि समए कायं च जोगं च इरियं च पच्चक्खाएज्जा।"
तं सच्चं सच्चवादी ओए तिण्णे छिण्णकहकहे आतीतढे " अणातीते चेच्चाण भेउरं कायं संविहुणिय विरूवरूवे परीसहुवसग्गे अस्सि विसंभणताए भेरवमणुचिण्णे। तत्थावि तस्स कालपरियाए । से तत्थ वियंतिकारए । इच्चेतं विमोहायतणं हितं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं ति बेमि।
॥ सत्तमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ १. आचारांग (पू० आ० श्री आत्माराम जी महाराज कृत टीका) पृ० ६१०
आचा० शीला० टीका पत्रांक २८८ इसके बदले किसी प्रति में 'समाहडच्चे' पाठ मिलता है। अर्थ होता है - जिसने अर्चा-संताप को समेट लिया है। 'जाव' शब्द के अन्तर्गत २२४ सूत्रानुसार यथायोग्य पाठ समझ लेना चाहिए। इसके बदले चूर्णि में पाठान्तर है-'संथारगं संथरेइ संथारगं संथरेत्ता...।' अर्थात् संस्तारक (बिछौना) बिछा लेता है, संस्तारक
बिछा कर.....। ७. 'पच्चक्खाएज्जा' के बदले 'पच्चक्खाएज' शब्द मानकर चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या की है - 'पाओवगमणं भणितं समे
विसमे वा पादवो विवजह पडिओ।णागजुणा तु कट्ठमिव अचेटे।' ८. 'आतीतढे' के बदले आइयटे, अतीढ़े पाठ मिलते हैं, अर्थ प्रायः समान है।