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अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक
२५९ वा वि तेण अहातिरित्तेण अहेसणिण अहापरिग्गहिएण असणेण वा ४ अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिजिस्सामि [५], लाघवियं आगममाणे जाव ' सम्मत्तमेव समभिजाणिया ।
२२७. जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा (संकल्प) होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर दूंगा और उनके द्वारा लाये हुए (आहार) का सेवन करूँगा।(१)
अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए (आहारादि) का सेवन नहीं करूँगा।(२) ____ अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर नहीं दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाए हुए (आहारादि) का सेवन करूँगा।(३) __अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर नहीं दूँगा और न ही उनके द्वारा लाए हुए (आहारादि) का सेवन करूँगा।(४)
(अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि) मैं अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय एवं ग्रहणीय तथा अपने लिए यथोपलब्ध लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य में से निर्जरा के उद्देश्य से परस्पर उपकार करने की दृष्टि से साधर्मिक मुनियों की सेवा करूँगा, (अथवा) मैं भी उन साधर्मिक मुनियों द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय-ग्रहणीय तथा स्वयं के लिए यथोपलब्ध लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य में से निर्जरा के उद्देश्य से उनके द्वारा की जाने वाली सेवा को रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा। (५)
वह लाघव का सर्वांगीण विचार करता हुआ (सेवा का संकल्प करे)।
(इस प्रकार सेवा का संकल्प करने वाले) उस भिक्षु को (वैयावृत्य और कायक्लेश) तप का लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाता है।
भगवान् ने जिस प्रकार से इस (सेवा के कल्प) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान-समझ कर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को भलीभाँति जान कर आचरण में लाए।
विवेचन - परस्पर वैयावृत्य कर्म-विमोक्ष में सहायक - प्रस्तुत सूत्र में आहार के परस्पर लेन-देन के सम्बन्ध में जो चार भंगों का उल्लेख है, वह पंचम उद्देशक में भी है। अन्तर इतना ही है कि वहाँ अग्लान साधु ग्लान की सेवा करने का और ग्लान साधु अग्लान साधु से सेवा लेने का संकल्प करता है, उसी संदर्भ में आहार के लेनदेन की चतुर्भंगी बताई गई है। परन्तु यहाँ निर्जरा के उद्देश्य से तथा परस्पर उपकार की दृष्टि से आहारादि सेवा के आदान-प्रदान का विशेष उल्लेख पांचवें भंग में किया। ___वैयावृत्य करना, कराना और वैयावृत्य करने वाले साधु की प्रशंसा करना, ये तीनों संकल्प कर्म-निर्जरा, इच्छा-निरोध एवं परस्पर उपकार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इस तरह मन, वचन, काया से सेवा करने, कराने एवं अनुमोदन करने वाले साधक के मन में अपूर्व आनन्द एवं स्फूर्ति की अनुभूति होती है तथा उत्साह की लहर दौड़ ९. यहाँ 'वा' शब्द से सारा पाठ १९९ सूत्रानुसार समझना चाहिए।
. 'करणाय' के बदले 'करणाए' तथा 'करणायते' पाठ मिलता है। अर्थ होता है - उपकार करने के लिए। . यहाँ 'जाव' शब्द से समग्र पाठ १८७ सूत्रानुसार समझना चाहिए।