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________________ २५८ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध उच्च साधक में एक विकल्प हो सकता है, जिसकी ओर शास्त्रकार ने इंगित किया है। वह है -- लजा जीतने की असमर्थता । इसलिए शास्त्रकार ने उसके लिए कटिबन्धन (चोलपट) धारण करने की छूट दी है। किन्तु साथ ही ऐसी कठोर शर्त भी रखी है कि अचेल अवस्था में रहते हुए-शीतादि को या अनुकूल किसी भी स्पर्श से होने वाली पीड़ा को उसे समभावपूर्वक सहन करना है। उपधि-विमोक्ष का यह सबसे बड़ा कल्प है। शरीर के प्रति आसक्ति को दूर करने में यह बहुत ही सहायक है। अभिग्रह एवं वैयावृत्य प्रकल्प २२७. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति - अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा ४ आह१ २ दलयिस्सामि आहडं च सातिजिस्सामि [१] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति - अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा ४ आहटु दलयिस्सामि आहडं च णो सातिज्जिस्सामि [२] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति - अहं च खलु असणं वा ३ ४ आहव णो दलयिस्सामि आहडं च सातिजिस्सामि [३] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति - अहं च अण्णेसिं खलु भिक्खूणं असणं वा ५ ४ आहटु णो दलयिस्सामि आहडं च णो सातिजिस्सामि [४], [जस्स " णं भिक्खुस्स एवं भवति -] अहं च खलु तेण अहातिरित्तेण अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएण असणेण वा ४ अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाय ° अहं १. (क) आचा० शीला० टीका पत्र २८७ (ख) भगवद्गीता में भी बताया है - 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते' - शीतोष्ण आदि संस्पर्श से होने वाले भोग दुःख की उत्पत्ति के कारण ही हैं। इसके बदले चूर्णिमान्य पाठ और उसका अर्थ इस प्रकार है - "आहट्ठ परिणं दाहामि (ण) पुण गिलायमाणो विसरि (स) कप्पिस्सावि गिहिस्सामो (मि) असणादि बितियो"। अर्थात् - प्रतिज्ञानुसार आहार लाकर दूंगा, किन्तु ग्लान होने पर भी असमानकल्प वाले मुनि द्वारा लाया हुआ अशनादि आहार ग्रहण नहीं करूँगा, यह द्वितीय कल्प है। 'वा' शब्द से यहाँ का सारा पाठ १९९ सूत्रानुसार समझना चाहिए। 'दलयिस्सामि' के बदले किसी-किसी प्रति में 'दासामि' पाठ है, अर्थ एक-सा है। यहाँ भी 'वा' शब्द से सारा पाठ १९९ सूत्रानुसार समझना चाहिए। यहाँ चूर्णि में इतना पाठ अंधिक है - 'चउत्थे उभयपडिसेहो' चौथे संकल्प में दूसरे भिक्षुओं से अशनादिदेने-लेने दोनों का प्रतिषेध है। (क) कोष्टकान्तर्गत पाठ शीलांक वृत्ति में नहीं है। (ख) चूर्णि के अनुसार यहाँ अधिक पाठ मालूम होता है - "चत्तारि पडिमा अभिग्गहविसेसा वुत्ता, इदाणिं पंचमो, सो पुण तेसिं चेव तिण्हं आदिलाणं पडिमाविसेसाणं विसेसो ।" - चार प्रतिमाएँ अभिग्रहविशेष कहे गए हैं, अब पांचवां अभिग्रह (बता रहे हैं) वह भी उन्हीं प्रारम्भ की तीन प्रतिमाविशेषों से विशिष्ट है। यहाँ चूर्णि में पाठान्तर इस प्रकार है - "अहं चखलु अन्नेसिं साहम्मियाणं अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहितेण अहातिरित्तेण असणेण वा ४ अगिलाए अभिकंख वेयावडियं करिस्सामि,अहं वा विखलु तेण अहातिरित्तेण अभिकंख साहम्मिएण अगिलायंतएणं वेयावडियं कीरमाणं सातिज्जिस्सामि।" - मैं भी अग्लान हूँ अतः अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय, जैसा भी गृहस्थ के यहाँ से लाया गया है तथा आवश्यकता से अधिक अशनादि आहार से निर्जरा के उद्देश्य से अन्य साधर्मिकों की सेवा करूँगा, तथा मैं भी अग्लान साधर्मिकों द्वारा आवश्यकता से अधिक लाए आहार से निर्जरा के उद्देश्य से की जाने वाली सेवा ग्रहण करूँगा।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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