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अष्टम अध्ययन
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सत्तमो उद्देसओ
सप्तम उद्देशक अचेल-कल्प
२२५. जे भिक्खू अचेले परिवुसिते तस्स णं एवं भवति - चाएमि अहं तण-फासं अहियासेत्तए, सीतफासं अहियासेत्तए, तेउफासं अहियासेत्तए दंस-मसगफासं अहियासेत्तए, एगतरे अण्णतरे विरूवरूवे फासे अहियासेत्तए, हिरिपडिच्छादणं च ह णो संचाएमि अहियासेत्तए । एवं से कप्पति कडिबंधणं धारित्तए ।
२२६. अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसंति, सीतफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंस-मसगफासा फुसंति, एगतरे अण्णतरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति।
जहेतं भगवया पवेदितं तमेव अभिसमेच्च सव्वतो सव्वयाए सम्मत्तमेव समभिजाणिया ।
२२५. जो (अभिग्रहधारी) भिक्षु अचेल-कल्प में स्थित है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास के तीखे स्पर्श को सहन कर सकता हूँ, सर्दी का स्पर्श सह सकता हूँ, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता हूँ, डांस और मच्छरों के काटने को सह सकता हूँ, एक जाति के या भिन्न-भिन्न जाति, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं लज्जा निवारणार्थ (गुप्तांगों के-) प्रतिच्छादन-वस्त्र को छोड़ने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसी स्थिति में वह भिक्षु कटिबन्धन (कमर पर बाँधने का वस्त्र) धारण कर सकता है।
२२६. अथवा उस (अचेलकल्प) में ही पराक्रम करते हुए लज्जाजयी अचेल भिक्षु को बार-बार घास का तीखा स्पर्श चुभता है, शीत का स्पर्श होता है, गर्मी का स्पर्श होता है, डांस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह अचेल (अवस्था में रहकर) उन एकजातीय या भिन्न-भिन्न जातीय नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे।
लाघव का सर्वांगीण चिन्तन करता हआ (वह अचेल रहे)। अचेल मुनि को (उपकरण-अवमौदर्य एवं काय-क्लेश) तप का सहज लाभ मिल जाता है।
अतः जैसे भगवान् ने अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान कर, सब प्रकार से, सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व (सत्य) या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए।
विवेचन - उपधि-विमोक्ष का चतुर्थकल्प - इन दो सूत्रों में (२२५-२२६) में प्रतिपादित है । इसका नाम अचेलकल्प है। इस कल्प में साधक वस्त्र का सर्वथा त्याग कर देता है। इस कल्प को स्वीकार करने वाले साधक का अन्तःकरण धृति, संहनन, मनोबल, वैराग्य-भावना आदि के रंग में इतना रंगा होता है और आगमों में वर्णित नारकों एवं तिर्यञ्चों को प्राप्त होने वाली असह्य वेदना की ज्ञानबल से अनुश्रुति हो जाने से घास, सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर आदि तीव्र स्पर्शों या अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शों को सहने में जरा-सा भी कष्ट नहीं वेदता। किन्तु कदाचित् ऐसे
१. 'अहियासेत्तए' के बदले चूर्णि में पाठ है - 'ण सो अहं अवाउडो' अर्थात् – मैं अपावृत (नंगा) होने में समर्थ नहीं हूँ। मैं
लज्जित हो जाता हूँ।