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अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र २२४
२५५ इस मरण का आराधक उतने ही प्रदेश में संचरण कर सकता है । इसे इत्वरिक अनशन भी कहते हैं। यहाँ 'इत्वर' शब्द थोड़े काल के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है और न ही इत्वर 'सागार-प्रत्याख्यान' १ के अर्थ में यहाँ अभीष्ट है, अपितु थोड़े-से निश्चित प्रदेश में यावज्जीवन संचरण करने के अर्थ में है। जिनकल्पिक आदि के लिए जब अन्य काल में भी सागर-प्रत्याख्यान करना असम्भव है, तब फिर यावत्कथिक भक्त-प्रत्याख्यान का अवसर कैसे हो सकता है? रोगातुर श्रावक इत्वर-अनशन करता है, वह इस प्रकार से कि 'अगर मैं इस रोग से पाँच-छह दिनों से मुक्त हो जाऊँ तो आहार कर लूँगा, अन्यथा नहीं। २' चूर्णिकार ने 'इत्वरिक' का अर्थ अल्पकालिक किया है, वह विचारणीय है।
इंगित-मरणग्रहण की विधि - संलेखना से आहार और कषाय को कृश करता हुआ साधक शरीर में जब थोड़ी-सी शक्ति रहे तभी निकटवर्ती ग्राम आदि से सूखा घास लेकर ग्राम आदि से बाहर किसी एकान्त निरवद्य, जीव-जन्तुरहित शुद्ध स्थान में पहुँचे। स्थान को पहले भलीभाँति देखे, उसका भलीभाँति प्रमार्जन करे, फिर वहाँ उस घास को बिछा ले, लघुनीति-बड़ीनीति के लिए स्थंडिलभूमि की भी देखभाल कर ले। फिर उस घास के संस्तारक (बिछौने) पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे, दोनों करतलों से ललाट को स्पर्श करके वह सिद्धों को नमस्कार करे, फिर पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके 'नमोत्थुणं' का पाठ दो बार पढ़े और तभी इत्वरिक-इंगितमरण रूप अनशन का संकल्प करे। अर्थात् – धृति - संहनन आदि बलों से युक्त तथा करवट बदलना आदि क्रियाएँ स्वयं करने में समर्थ साधक जीवनपर्यन्त के लिए नियमतः चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान (त्याग) गुरु या दीक्षाज्येष्ठ साधु के सान्निध्य में करे, साथ ही 'इंगित' - मन में निर्धारित क्षेत्र में संचरण करने का नियम भी कर ले। तत्पश्चात् शांति, समता और समाधिपूर्वक इसकी आराधना में तल्लीन रहे। ३
__ इंगित-मरण का माहात्म्य - शास्त्रकार ने इसे सत्य कहा है तथा इसे स्वीकार करने वाला सत्यवादी (अपनी प्रतिज्ञा के प्रति अन्त तक सच्चा व वफादार), राग-द्वेषरहित, दृढ़ निश्चयी, सांसारिक प्रपंचों से रहित, परीषह-उपसर्गों से अनाकुल, इस अनशन पर दृढ़ विश्वास होने से भयंकर उपसर्गों के आ पड़ने पर भी अनुद्विग्न, कृतकृत्य एवं संसारसागर से पारगामी होता है और एक दिन इस समाधिमरण के द्वारा अपने जीवन को सार्थक करके चरमलक्ष्यमोक्ष को प्राप्त कर लेता है। सचमुच समभाव और धैर्यपूर्वक इंगितमरण की साधना से अपना शरीर तो विमोक्ष होता ही है, साथ ही अनेक मुमुक्षुओं एवं विमोक्ष-साधकों के लिए वह प्रेरणादायक बन जाता है।
'सागार-प्रत्याख्यान' आगार का विशेष काल तक के लिए त्याग तो श्रावक करता है। सामान्य साधु भी कर सकता है, पर
जिनकल्पी श्रमण सागारप्रत्याख्यान नहीं करता। २. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २८५-२८६ (ख) देखिए इंगितमरण का स्वरूप दो गाथाओं में -
पच्चक्खइ आहारं चउव्विहं णियमओ गुरुसमीवे । । इंगियदेसम्मि तहा चिटुंपि हु णियमओ कुणइ ॥१॥ उव्वत्तइ परिअत्तइ काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ ।
सव्वमिह अप्पणच्चिअण अन्नजोगेण धितिबलिओ ॥२॥ - आचा० शीला० टीका पत्रांक २८६ अर्थ - नियमपूर्वक गुरु के समीप चारों आहार का त्याग करता है और मर्यादित स्थान में नियमित चेष्टा करता है। करवट बदलना, उठना या कायिक गमन (लघुनीति-बड़ी नीति) आदि भी स्वयं करता है। धैर्य, बल युक्त मुनि सब कार्य अपने आप करे, दूसरों की सहायता न लेवे। आचा० शीला० टीका पत्रांक २८५-२८६
४. आचा० शीला० टीका पत्रांक २८६