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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
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तैयारी के रूप में शास्त्रकार ने उपधि-विमोक्ष, वस्त्र - 1 -विमोक्ष, आहार-विमोक्ष, स्वाद - विमोक्ष, सहाय- विमोक्ष आदि विविध पहलुओं से शरीरविमोक्ष का अभ्यास करने का निर्देश किया है। इस सूत्र (२२४) के पूर्वार्ध में संलेखना का विधि-विधान बताया है।
संलेखना कब और कैसे ? - संलेखना का अवसर कब आता है ? इस सम्बन्ध में वृत्तिकार सूत्रपाठानुसार स्पष्टीकरण करते हैं.
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(१) रूखा-सूखा नीरस आहार लेने से, या तपस्या में शरीर अत्यन्त ग्लान हो गया हो ।
(२) रोग से पीड़ित हो गया हो ।
(३) आवश्यक क्रिया करने में अत्यन्त अक्षम हो गया हो ।
(४) उठने-बैठने, करवट बदलने आदि नित्यक्रियाएँ करने में भी अशक्त हो गया हो ।
इस प्रकार शरीर अत्यन्त ग्लान हो जाए तभी भिक्षु को त्रिविध समाधिमरण में से अपनी योग्यता, क्षमता और
ॐ
शक्ति के अनुसार किसी एक का चयन करके उसकी तैयारी के लिए सर्वप्रथम संलेखना करनी चाहिए । १.
संलेखना के मुख्य अंग - इसके तीन अंग बताए हैं -
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.(१) आहार का क्रमशः संक्षेप ।
(२) कषायों का अल्पीकरण एवं उपशमन और
(३) शरीर को समाधिस्थ, शान्त एवं स्थिर रखने का अभ्यास ।
साधक इसी क्रम का अनुसरण करता है । २
संलेखना विधि - यद्यपि संलेखना की उत्कृष्ट अवधि १२ वर्ष की होती है । परन्तु यहाँ वह विवक्षित नहीं है। क्योंकि ग्लान की शारीरिक स्थिति उतने समय तक टिके रहने की नहीं होती। इसलिए संलेखना - साधक को अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हुए तदनुरूप योग्यतानुसार समय निर्धारित करके क्रमश: बेला, तेला, चौला, पंचौला, उपवास, आयंबिल आदि क्रम से द्रव्य-संलेखना हेतु आहार में क्रमशः कमी (संक्षेप) करते जाना चाहिए। साथ ही भाव-संलेखना के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों को अत्यन्त शांत एवं अल्प करना चाहिए । इसके साथ ही शरीर, मन, वचन की प्रवृत्तियों को स्थिर एवं आत्मा में एकाग्र करना चाहिए। इसमें साधक को काष्ठफलक की तरह शरीर और कषाय- दोनों ओर से कृश बन जाना चाहिए।
'उट्ठाय भिक्खू ....' - इसका तात्पर्य यह है - समाधिमरण के लिए उत्थित होकर... । शास्त्रीय भाषा में उत्थान तीन प्रकार का प्रतीत होता है -
(१) मुनि दीक्षा के लिए उद्यत होना - संयम में उत्थान,
(२) ग्रामानुग्राम उग्र व अप्रतिबद्ध विहार करना - अभ्युद्यतविहार का उत्थान तथा
(३) ग्लान होने पर संलेखना करके समाधिमरण के लिए उद्यत होना-समाधिमरण का उत्थान ।
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इंगितमरण का स्वरूप और अधिकारी - पादपोपगमन की अपेक्षा से इंगितमरण में संचार (चलन) की छूट है। इसे 'इंगितमरण' इसलिए कहा जाता है कि इसमें संचार का क्षेत्र (प्रदेश) इंगित - नियत कर लिया जाता है,
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आचा० शीला० पत्रांक २८४ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २८४
आया (मुनि नथमल जी कृत विवेचन ) पृ० ३१५