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________________ अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र २२४ २५३ वियंतिकारए । इच्चेतं विमोहायतणं हितं सुहं खमं णिस्सेस आणुगामियं त्ति बेमि । ॥छट्ठो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ २२४. जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाता है कि सचमुच मैं इस समय (साधुजीवन की आवश्यक क्रियाएँ करने के लिए) इस (अत्यन्त जीर्ण एवं अशक्त) शरीर को वहन करने में क्रमशः ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूँ, (ऐसी स्थिति में) वह भिक्षु क्रमशः (तप के द्वारा) आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे और क्रमशः आहार का संक्षेप करके वह कषायों का कृश (स्वल्प) करे। कषायों को स्वल्प करके समाधियुक्त लेश्या (अन्तःकरण की वृत्ति) वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले। (वह संलेखना करने वाला भिक्षु शरीर में चलने की शक्ति हो, तभी) क्रमशः ग्राम में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मडंब में, पट्टन में, द्रोणमुख में, आकर में, आश्रम में, सन्निवेश में, निगम में या राजधानी में (किसी भी वस्ती में) प्रवेश करके घास (सूखा तृण-पलाल) की याचना करे। घास की याचना करके (प्राप्त होने पर) उसे लेकर (ग्राम आदि के बाहर) एकान्त में चला जाए। वहाँ एकान्त स्थान में जाकर जहाँ कीड़े आदि के अंडे, जीव-जन्तु, बीज, हरियाली (हरीघास), ओस, उदक, चीटियों के बिल (कीड़ीनगरा), फफूंदी, काई, पानी का दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थान का बार-बार प्रतिलेखन (निरीक्षण) करके, उसका बार-बार प्रमार्जन (सफाई) करके, घास का संथारा (संस्तारक-बिछौना) करे। घास का बिछौना बिछाकर उस पर स्थित हो, उस समय इत्वरिक अनशन ग्रहण कर ले। . वह (इत्वरिक-इंगित-मरणार्थ ग्रहण किया जाने वाला अनशन) सत्य है। वह सत्यवादी (प्रतिज्ञा में पूर्णतः स्थित रहने वाला), राग-द्वेष रहित, संसार-सागर को पार करने वाला, इंगितमरण की प्रतिज्ञा निभेगी या नहीं ?' इस प्रकार के लोगों के कहकहे (शंकाकुल-कथन) से मुक्त या किसी भी रागात्मक कथा-कथन से दूर जीवादि पदार्थों का सांगोपांग ज्ञाता अथवा सब बातों (प्रयोजनों) से अतीत, संसार पारगामी अथवा परिस्थितियों से अप्रभावित, (अनशन स्थित मुनि इंगितमरण की साधना को अंगीकार करता है)। वह भिक्षु प्रतिक्षण विनाशशील शरीर को छोड़कर नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके (शरीर और आत्मा पृथक्-पृथक् हैं) इस (सर्वज्ञ प्ररूपित भेदविज्ञान) में पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर (भैरव) अनशन का (शास्त्र-विधि के अनुसार) अनुपालन करे। . तब ऐसा (रोगादि आतंक के कारण इंगितमरण स्वीकार-) करने पर भी उसकी. वह काल-मृत्यु (सहज मरण) होती है। उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया (पूर्णतः कर्मक्षय) करने वाला भी हो सकता है। इस प्रकार यह (इंगितमरण के रूप में शरीर-विमोक्ष) मोहमुक्त भिक्षुओं का आयतन (आशय) हितकर, सुखकर, क्षमारूप या कालोपयुक्त, निःश्रेयस्कर और भवान्तर में साथ चलने वाला होता है। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - शरीर-विमोक्ष के हेतु इंगितमरण साधना - इस अध्ययन के चौथे उद्देशक में विहायोमरण, पांचवें में भक्तप्रत्याख्यान और छठे में इंगितमरण का विधान शरीर-विमोक्ष के सन्दर्भ में किया गया है। इसकी पूर्व
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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