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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
आवश्यकता नहीं रहती। उपधि जितनी कम होगी, उतना ही आत्मचिंतन बढ़ेगा, जीवन में लाघव भाव का अनुभव करेगा, तप की भी सहज ही उपलब्धि होगी। पर-सहाय-विमोक्ष : एकत्व अनुप्रेक्षा के रूप में
. २२२. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति - एगो अहमंसि, ण मे अस्थि कोइ, ण वाहमवि कस्सइ। एवं से एगागिणमेव ' अप्पाणां समभिजाणेजा लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति। जहेणं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया ।
२२२. जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाए कि 'मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है,और न मैं किसी का हूँ,' वह अपनी आत्मा को एकाकी ही समझे। (इस प्रकार) लाघव का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (वह सहाय-विमोक्ष करे, ऐसा करने से) उसे (एकत्व-अनुप्रेक्षा का) तप सहज में प्राप्त हो जाता है।
भगवान् ने इसका (सहाय-विमोक्ष के सन्दर्भ में - एकत्वानुप्रेक्षा के तत्त्व का) जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (इसमें निहित) सम्यक्त्व (सत्य) या समत्व को सम्यक् प्रकार से जानकर क्रियान्वित करे।
विवेचन - पर-सहायं विमोक्ष भी आत्मा के पूर्ण विकास एवं पूर्ण स्वातंत्र्य के लिए आवश्यक है। आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता भी तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह उपकरण, आहार, शरीर, संघ तथा सहायक आदि से भी निरपेक्ष होकर एकमात्र आत्मावलम्बी बनकर जीवन-यापन करे। समाधि-मरण की तैयारी के लिए सहायक-विमोक्षं भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २९) में इससे सम्बन्धित वर्णित अप्रतिबद्धता, संभोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, आहार-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान एवं सहाय-प्रत्याख्यान आदि आवश्यक विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं मननीय हैं । ३
सहाय-विमोक्ष से आध्यात्मिक लाभ - उत्तराध्ययन सूत्र में सहाय-प्रत्याख्यान से लाभ बताते हुए कहा है-"सहाय-प्रत्याख्यान से जीवात्मा एकीभाव को प्राप्त करता है, एकीभाव से ओत-प्रोत साधक एकत्व भावना करता हुआ बहुत कम बोलता है, उसके झंझट बहुत कम हो जाते हैं, कलह भी अल्प हो जाते हैं, कषाय भी कम हो जाते हैं, तू-तू, मैं-मैं भी समाप्तप्राय हो जाती है, उसके जीवन में संयम और संवर प्रचुर मात्रा में आ जाते हैं, वह आत्म-समाहित हो जाता है।"
सहाय-विमोक्ष साधक की भी यही स्थिति होती है, जिसका शास्त्रकार ने निरूपण किया है - "एगे अहमंसि.... एगागिणमेव अप्याणं समभिजाणिज्जा ।" इसका तात्पर्य यह है कि उस सहाय-विमोक्षक भिक्षु को
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आचारांग (आ० श्री आत्माराम जी महाराज कृत टीका) पृ०५९४ इसके बदले 'एगाणियमेव अप्पाणं' पाठ भी है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है - "एगाणियं अब्बितियं एगमेव अप्पाणं" - अद्वितीय अकेले ही आत्मा को.....। उत्तराध्ययन सूत्र अ० २९, बोल ३०, ३४, ३५, ३८, ३९, ४० देखिये। 'सहायपच्चक्खाणेणं जीवे एगीभाव जणयइ । एगीभावभूए य ण जीवे अप्पसद्दे, अप्पझंझे, अप्पकलहे, अप्पकसाए, अप्पतुमंतुमे, संजमबहुले, संवरबहुले समाहिए यावि भवइ।'
- उत्तरा० अ० २९, बोल ३९