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________________ अष्टम अध्ययन २४९ छट्ठो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक एकवस्त्रधारी श्रमण का समाचार २२०. जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिसिते पायबितिएण तस्स णो एवं भवति - बितियं वत्थं जाइस्सामि। २२१. से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा, अहापरिग्गहितं वत्थं धारेजा जाव' गिम्हें पडिवन्ने अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेजा, अहापरिजुषणं वत्थं परिट्ठवेत्ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे जाव' सम्मत्तमेव समभिजाणिया। २२०. जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा (एक) पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार कर चुका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा। २२१. (यदि उसका वस्त्र अत्यन्त फट गया हो तो) वह यथा - एषणीय (अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय) वस्त्र की याचना करे। यहाँ से लेकर आगे 'ग्रीष्मऋतु आ गई है' तक का वर्णन [चतुर्थ उद्देशक के सूत्र २१४ की तरह] समझ लेना चाहिए। भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करे। यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके वह (या तो) एक शाटक (आच्छादन पट) में ही रहे, (अथवा) वह अचेल (वस्त्ररहित) हो जाए। वह लाघवता का सब तरह से विचार करता हुआ (वस्त्र का परित्याग करे)। वस्त्र-विमोक्ष करने वाले मुनि को सहज ही तप (उपकरण-अवमौदर्य एवं कायक्लेश) प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने जिस प्रकार से उस (वस्त्र-विमोक्ष) का निरूपण किया है, उसे उसी रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए। विवेचन - सूत्र २२० एवं २२१ में उपधि-विमोक्ष के तृतीयकल्प का निरूपण किया गया है। पिछले द्वितीय कल्प में दो वस्त्रों को रखने का विधान था, इसमें भिक्षु एक वस्त्र रखने की प्रतिज्ञा करता है। ऐसी प्रतिज्ञा करने वाला मुनि सिर्फ एक वस्त्र में रहता है। शेष वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। उपधि-विमोक्ष के सन्दर्भ में वस्त्र-विमोक्ष का उत्तरोत्तर दृढ़तर अभ्यास करना ही इस प्रतिज्ञा का उद्देश्य है। आत्मा के पूर्ण विकास के लिए ऐसी प्रतिज्ञा सोपान रूप है। वस्त्र-पात्रादि उपधि की आवश्यकता शीत आदि से शरीर की सुरक्षा के लिए है, अगर साधक शीतादि परीषहों को सहने में सक्षम हो जाता है तो उसे वस्त्रादि रखने की १. 'जाव' शब्द के अन्तर्गत यहाँ २१४ सूत्रानुसार सारा पाठ समझ लेना चाहिए। किसी-किसी प्रति में इसके बदले पाठान्तर है- 'अहापरिजुण्णं वत्थं परिवेत्ता अचेले' अर्थात् - यथा परिजीर्ण वस्त्र का परित्याग करके अचेल हो जाए। ३. 'लाघवियं' के बदले किसी-किसी प्रति में 'लाघव' शब्द मिलता है। यहाँ 'जाव' शब्द के अन्तर्गत १७७ सूत्रानुसार सारा पाठ समझ लेना चाहिए।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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