________________
अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र २२२-२२३
२५१.
यह अनुभव हो जाता है कि मैं अकेला हूँ, संसार-परिभ्रमण करते हुए मेरा पारमार्थिक उपकारकर्ता आत्मा के सिवाय कोई दूसरा नहीं है और न ही मैं किसी दूसरे का दुःख निवारण करने में (निश्चयदृष्टि से) समर्थ हूँ, इसीलिए मैं किसी अन्य का नहीं हूँ। सभी प्राणी स्वकृत-कर्मों का फल भोगते हैं । इस प्रकार वह भिक्षु अन्तरात्मा को सम्यक् प्रकार से एकाकी समझे । नरकादि दुःखों से रक्षा करने वाला शरणभूत आत्मा के सिवाय और कोई नहीं है। ऐसा समझकर रोगादि परीषहों के समय दूसरे की शरण से निरपेक्ष रहकर समभाव से सहन करे।' स्वाद-परित्याग-प्रकल्प
२२३. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा असणं वा ४ २ आहारेमाणे णो वामातो हणुयातो दाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे ', दाहिणातो वा हुणुयातो वामं हणुयं णो संचारेज्जा आसादेमाणे। से अणासादमाणे लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति । जहेयं भगवता पेवदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वयाए सम्मत्तमेव समभिजाणिया ।
२२३. वह भिक्षु या भिक्षुणी अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य का आहार करते समय (ग्रास का) आस्वाद लेते हुए बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, (इसी प्रकार) आस्वाद लेते हुए दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए।
___ यह अनास्वाद वृत्ति से (पदार्थों का स्वाद ने लेते हुए) (इस स्वाद-विमोक्ष में) लाघव का समग्र चिन्तन करते हुए (आहार करे)।
(स्वाद-विमोक्ष से) वह (अवमौदर्य, वृत्तिसंक्षेप एवं कायक्लेश) तप का सहज लाभ प्राप्त कर लेता है।
भगवान् ने जिस रूप में स्वाद-विमोक्ष का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को जाने और सम्यक् रूप से परिपालन करे।
विवेचन - आहार में अस्वादवृत्ति - भिक्षु शरीर से धर्माचरण एवं तप-संयम की आराधना के लिए आहार करता है, शरीर को पुष्ट करने, उसे सुकुमार, विलासी एवं स्वादलोलुप बनाने की उसकी दृष्टि नहीं होती। क्योंकि उसे तो शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों पर से आसक्ति या मोह का सर्वथा परित्याग करना है। यदि वह शरीर निर्वाह के लिए यथोचित आहार में स्वाद लेने लगेगा तो मोह पुनः उसे अपनी ओर खींच लेगा।
इसी स्वाद-विमोक्ष का तत्त्व शास्त्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाया है। उत्तराध्ययन सत्र में भी बताया गया है कि जिह्वा को वश में करने वाला अनासक्त मुनि सरस आहार में या
I or is
२.
.
in x
आचा० शीला० टीका पत्रांक २८३ यहाँ वा ४' के अन्तर्गत १९९ सूत्रानुसार समग्र पाठ समझ लें। चूर्णि में 'संचारेजा' के बदले 'साहरेजा' पाठ है। तात्पर्य वही है। यहाँ आसाएमाणे' के बदले 'आढायमाणे' और आगे 'अणाढायमाणे' पाठ चूर्णिकार ने माना है, अर्थ किया है - आढा णाम आयारो...अमणुण्णे वा अणाढायमाणे...तं दुग्गंधं वा णो वामातो दाहिणं हणुयं साहरेज्जा अणाढायमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ णो वाम हणुयं साहरेजा।" - भावार्थ यह है कि वह मनोज्ञ-वस्तु हो तो आदर - रुचिपूर्वक और अमनोज्ञ दुर्गन्धयुक्त वस्तु हो तो अनादर-अरुचिपूर्वक बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में या दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए। आचारांग (पू. आ० आत्माराम जी म० कृत टीका) पृ० ५९७