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________________ २४६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध आहटु परिण्णं णो आणखेस्सामि आहडं च णो सातिज्जिस्सामि। [लाघवियं आगममाणे । तवे से अभिसगण्णामते भवति ] जहेतं भगवता पवेदितं तमेव. अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया।] एवं से अहाकिट्टितमेव धम्मं समभिजाणमाणे संते विरते सुसमाहितलेस्से ।तत्थावि तस्स कालपरियाए। 'से तत्थ वियंतिकारए । इच्चेतं विमोहायतणं हितं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि। ॥पंचमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ २१९. जिस भिक्षु का यह प्रकल्प (आचार-मर्यादा) होता है कि मैं ग्लान हूँ, मेरे साधर्मिक साधु अग्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया है, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा (उद्देश्य) से साधर्मिकों द्वारा की जानी वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा।(१) (अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु ग्लान है, मैं अग्लान हूँ; उसने अपनी सेवा के लिए मुझे अनुरोध नहीं किया है, (पर) मैंने उसकी सेवा के लिए उसे वचन दिया है । अतः निर्जरा के उद्देश्य से तथा परस्पर उपकार करने की दृष्टि से उस साधर्मी की मैं सेवा करूँगा। जिस भिक्षु का ऐसा प्रकल्प हो, वह उसका पालन करता हुआ भले ही प्राण त्याग कर दे, (किन्तु प्रतिज्ञा भंग न करे)(२) । कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा, तथा उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन भी करूँगा।(३) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन नहीं करूँगा।(४) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि नहीं लाऊँगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ सेवन करूँगा।(५) (अथवा) कोई भिक्षु प्रतिज्ञा करता है कि न तो मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि लाऊँगा और न ही मैं उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन करूँगा।(६) . (यों उक्त छः प्रकार की प्रतिज्ञाओं में से किसी प्रतिज्ञा को ग्रहण करने के बाद अत्यन्त ग्लान होने पर या संकट आने पर) भी प्रतिज्ञा भंग न करे, भले ही वह जीवन का उत्सर्ग कर दे। (लाघव का सब तरह से चिन्तन करता हुआ (आहारादि क्रमशः विमोक्ष करे।) आहार-विमोक्ष साधक को अनायास ही तप का लाभ प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने जिस रूप में इस (आहार-विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (इसमें निहित) समत्व या सम्यक्त्व का सेवन करे।) इस प्रकार वह भिक्षु तीर्थंकरों द्वारा जिस रूप में धर्म प्ररूपित हुआ है, उसी रूप में सम्यक्रूप से जानता और आचरण करता हुआ, शान्त विरत और अपने अन्तःकरण की प्रशस्त वृत्तियों (लेश्याओं) में अपनी आत्मा को सुसमाहित करने वाला होता है। ला५ 'लाघवियं आगममाणे' का अर्थ चूर्णि में यों है - "लाघवितं - लघुता। लापवितं दव्वे भावे य। तं आगममाणे - इच्छमाणे.....।" (ख) कोष्ठकान्तर्गत पाठ चूर्णि व वृत्ति में है। अन्य प्रतियों में नहीं मिलता।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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