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अष्टम अध्ययन : पंचम उद्देशक: सूत्र २१९
(ग्लान भिक्षु भी ली हुई प्रतिज्ञा का भंग न करते हुए यदि भक्त - प्रत्याख्यान आदि के द्वारा शरीर - परित्याग करता है तो उसकी वह मृत्यु काल-मृत्यु है । समाधिमरण होने पर भिक्षु अन्तक्रिया (सम्पूर्ण कर्मक्षय) करने वाला भी हो सकता है।
इस प्रकार यह (सब प्रकार का विमोक्ष) शरीरादि मोह से विमुक्त भिक्षुओं का अयतन आश्रयरूप है, हितकर है, सुखकर है, सक्षम (क्षमारूप या कालोचित) है, निःश्रेयस्कर है, और परलोक में भी साथ चलने वाला है । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन - भिक्षु की ग्लानता के कारण और कर्त्तव्य - ग्लान होने का अर्थ है - शरीर का अशक्त, दुर्बल, रोगाक्रान्त एवं जीर्ण-शीर्ण हो जाना। ग्लान होने के मुख्य कारण चूर्णिकार ने इस प्रकार बताए हैं.
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(१) अपर्याप्त या अपोषक भोजन ।
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(२) अपर्याप्त वस्त्र।
(३) निर्वस्त्रता ।
(४) कई पहरों तक उकडू आसन में बैठना ।
(५) उग्र एवं दीर्घ तपस्या ।'
. शरीर जब रुग्ण या अस्वस्थ (ग्लान) हो जाए, हड्डियों का ढांचा मात्र रह जाए, उठते-बैठते पीड़ा हो, शरीर में रक्त और माँस अत्यन्त कम हो जाए, स्वयं कार्य करने की, धर्मक्रिया करने की शक्ति भी क्षीण हो जाए, तब उस भिक्षु को समाधिमरण की, संल्लेखना की तैयारी प्रारम्भ कर देनी चाहिए।
छह प्रकार की प्रतिज्ञाएँ - इस सूत्र में परिहारविशुद्धिक या यथालन्दिकभिक्षु द्वारा ग्रहण की जाने वाली छह प्रतिज्ञाओं का निरूपण है । इन्हें शास्त्रीय भाषा में प्रकल्प (पगप्पे ) कहा है । प्रकल्प का अर्थ - विशिष्ट आचारमर्यादाओं का संकल्प या प्रतिज्ञा । यहाँ ६ प्रकल्पों का वर्णन है
(१) मैं ग्लान हूँ, साधर्मिक भिक्षु अग्लान है, स्वेच्छा से उन्होंने मुझे सेवा का वचन दिया है, अतः वे सेवा करेंगे तो मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा ।
(२) मेरा साधर्मिक भिक्षु ग्लान है, मैं अग्लान हूँ, उसके द्वारा न कहने पर भी मैंने उसे सेवा का वचन दिया है, अत: निर्जरादि की दृष्टि से मैं उसकी सेवा करूँगा ।
१.
२.
सहयोग भी अदीनभाव से ऐसा दृढ़प्रतिज्ञ साधक अपनी प्रतिज्ञानुसार यदि अपने साधर्मिक भिक्षुओं का सहयोग लेता भी है तो अदीनभाव से, उनकी स्वेच्छा से ही। न तो वह किसी पर दबाव डालता है, न दीनस्वर से
(३) साधर्मिकों के लिए आहारादि लाऊँगा, और उनके द्वारा लाए हुए आहारादि का सेवन भी करूँगा । (४) साधर्मिकों के लिए आहारादि लाऊँगा, किन्तु उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन नहीं करूँगा । (५) साधर्मिकों के लिए आहारादि नहीं लाऊँगा, किन्तु उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन करूँगा । २ (६) मैं न तो साधर्मिकों के लिए आहारादि लाऊँगा और न उनके द्वारा लाए हुए आहारादि का सेवन करूँगा ।
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २८१
(ख) आचारांग चूर्णि
आचा० शीला० टीका पत्र २८१