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________________ अष्टम अध्ययन : पंचम उद्देशक २४५ (और कहे)-"आयुष्मन् गृहपति ! यह अभ्याहृत – (घर से सामने लाया हुआ) अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य मेरे लिए सेवनीय नहीं है, इसी प्रकार दूसरे (दोषों से दूषित आहारादि भी मेरे लिए ग्रहणीय नहीं है)।" विवेचन - ग्लान द्वारा अभिहृत आहार-निषेध - सूत्र २१८ में ग्लान भिक्षु को भिक्षाटन करने की असमर्थता की स्थिति में कोई भावुक भक्त उपाश्रय में या रास्ते में लाकर आहारादि देने लगे, उस समय भिक्षु द्वारा किए जानेवाले निषेध का वर्णन है। पुट्ठो अबलो अहमंसि - का तात्पर्य है - वात, पित्त, कफ आदि रोगों से आक्रान्त हो जाने के कारण शरीर से मैं दुर्बल हो गया हूँ। शरीर की दुर्बलता का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। इसलिए ऐसा अशक्त भिक्षु सोचने लगता है - मैं अब भिक्षा के लिए घर-घर घूमने में असमर्थ हो गया हूँ। दुर्बल होने पर भी अभिहृतदोष युक्त आहार-पानी न ले - इसी सूत्र के उत्तरार्ध का तात्पर्य यह है कि ऐसे भिक्षु को दुर्बल जान कर या सुनकर कोई भावुक हृदय गृहस्थादि अनुकम्पा और भक्ति से प्रेरित होकर उसके लिए भोजन बनाकर उपाश्रयादि में लाकर देने लगे तो वह पहले सोच ले कि ऐसा सदोष आरम्भजनित आहार लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। तत्पश्चात् वह उस भावुक गृहस्थ को अपने आचार-विचार समझाकर उस दोष से या अन्य किसी भी दोष से युक्त आहार को लेने या खाने-पीने से इन्कार कर दे। २ । शंका-समाधान - जो भिक्षु स्वयं भिक्षा के लिए नहीं जा सकता, गृहस्थादि द्वारा लाया हुआ ले नहीं सकता, ऐसी स्थिति में वह शरीर को आहार-पानी कैसे पहुंचाएगा ? इस शंका का समाधान अगले सूत्र में किया गया है। मालूम होता है - ऐसा साधु प्रायः एकलविहारी होता है। वैयावृत्य-प्रकल्प २१९. जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे ३ (१) अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णतेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंख साधम्मिएहिं । कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिरसामि, (२) अहं चावि खलु अपडिण्णत्तो' पडिण्णतस्स अगिलाणो गिलाणस्स अभिकंख साधम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए। (३) आहटु परिण्णं आणखेस्सामि आहडंच सातिज्जिस्सामि (४)आहट्ट परिणं आणखेस्सामि आहडं च नो सातिज्जिस्सामि (५) आहट्ट परिण्णं नो आणक्खेस्सामि आहडं च सातिज्जिस्सामि (६) १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २८० आचा० शीला० टीका पत्रांक २८० ___ 'कप्पे' पाठान्तर है, अर्थ चूर्णि में यों है - कप्पो समाचारीमज्जाता (समाचारी-मर्यादा का नाम कल्प है)। इसके बदले चूर्णि में पाठान्तर है - 'साहम्मिवेयावडियं कीरमाणं सातिजिस्सामि' अर्थात् - साधर्मिक (साधु) द्वारा की जाती हुई सेवा का ग्रहण करूँगा। 'अपडिण्णत्तं' शब्द का अर्थ चूर्णि में यों है - अपडिण्णत्तो णाम णाहं साहमियवेयावच्चे केणयि अब्भत्थेयव्यो,इति अपडिण्णत्तो। अर्थात् - अप्रतिज्ञप्त उसे कहते हैं, जो किसी भी साधर्मिक से वैयावृत्य की अपेक्षा - अभ्यर्थना नहीं करता। इसका अर्थ चूर्णि में यह है - पडिण्णत्तस्स अह तव इच्छाकारेण वेयावडियं करेमि...जाव गिलायसि। अर्थात् - मैं प्रतिज्ञा लिए हुए तुम्हारी सेवा तुम्हारी इच्छा होगी, तो करूंगा, ग्लान मत हो। 'अभिकंख' का अर्थ चूर्णि में इस प्रकार है - 'वेयावच्चगुणे अभिकंखित्ता वेयावडियं करिस्सामि' वैयावृत्य का गुण प्राप्त करने की इच्छा से वैयावृत्य करूँगा।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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