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अष्टम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र २१६-२१७
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निषेध किया जाता है, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से उसका स्वीकार भी किया जा सकता है। कालज्ञ साधु के लिए उत्सर्ग भी कभी दोषकारक और अपवाद भी गुणकारक हो जाता है। इसलिए कहा - 'से वि तत्थ वियंतिकारए'तात्पर्य यह है कि क्रमशः भक्तपरिज्ञा अनशन आदि करने वाला ही नहीं, वैहानसादि मरण को अपनाने वाले भिक्षु के लिए वैहानसादि मरण भी औत्सर्गिक बन जाता है। क्योंकि इस मरण के द्वारा भी भिक्षु आराधक होकर सिद्ध-मुक्त हुए हैं, होंगे। यही कारण है कि शास्त्रकार इस आपवादिक मरण को भी प्रशंसनीय बताते हुए कहते हैं - 'इच्चेतं विमोहायतणं....।'' यह उसके विमोह (वैराग्य का) केन्द्र, आश्रय है।
॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
पंचमो उद्देसओ
पंचम उद्देशक द्विवस्त्रधारी श्रमण का समाचार
२१६. जे भिक्खूदोहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायततिएहितस्स णंणो एवं भवति - ततियं वत्थं जाइस्सामि। २१७. से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएजा जाव' एयं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं ।
अह पुण एवं जाणेजा उवातिक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवण्णे,'अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिट्ठवेजा, अहापरिजुण्णाई वत्थाइं परिट्ठवेत्ता अदुवा एगसाडे, अदुआ अचेले लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भवति । जहेयं भगवता पवेदितं । तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वयाए सम्मत्तमेव समभिजाणिया ।
२१६. जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे (एक) पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूँ।
२१७. (अगर दो वस्त्रों से कम हो तो) वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे। इससे आंगे वस्त्र-विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्व उद्देशक में - "उस वस्त्रधारी भिक्षु की यही सामग्री है" तक वर्णित पाठ के अनुसार पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। ____ यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गयी है, ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जैसे-जैसे वस्त्र जीर्ण हो गए हों, उनका परित्याग कर दे। (इस प्रकार) यथा परिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो वह एक शाटक (आच्छादन पट - चादर) में रहे, या वह अचेल (वस्त्र-रहित) हो जाए। (इस प्रकार) वह लाघवता का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (क्रमशः वस्त्र-विमोक्ष प्राप्त करे)। १. नियुक्ति गाथा गा० २९२ २. यहाँ'जाव' शब्द के अन्तर्गत समग्र पाठ २१४ सूत्रानुसार समझें