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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
पादपोपगमन) स्वीकार करके शरीर-विमोक्ष करने का औत्सर्गिक विधान है, किन्तु इसकी प्रक्रिया तो काफी लम्बी अवधि की है। कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाए और उसके लिए तात्कालिक शरीर-विमोक्ष का निर्णय लेना हो तो वह क्या करे ? इस आपवादिक स्थिति के लिए शास्त्रकारों ने वैहानस जैसे मरण की सम्मति दी है, और उसे भगवद् आज्ञानुमत एवं कल्याणकर माना है।
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धर्म-संकटापन्न आपवादिक स्थिति - शास्त्रकार तो सिर्फ सूत्र रूप में उसका संकेत भर करते हैं, वृत्तिकार ने उस स्थिति का स्पष्टीकरण किया है - कोई भिक्षु गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए गया । वहाँ कोई काम पीड़िता, पुत्राकांक्षिणी, पूर्वाश्रम (गृहस्थ जीवन) की पत्नी या कोई व्यक्ति उसे एक कमरे में उक्त स्त्री के साथ बन्द कर दे या उसे वह स्त्री रतिदान के लिए बहुत अनुनय-विनय करे, वह स्त्री या उसके पारिवारिकजन उसे भावभक्ति से, प्रलोभन से, कामसुख के लिए विचलित करना चाहें, यहाँ तक कि उसे इसके लिए विवश कर दे; अथवा वह स्वयं ही वातादि जति काम - पीड़ा या स्त्री आदि के उपसर्ग को सहन करने में असमर्थ हो, ऐसी स्थिति में उस साधु के लिए झटपट निर्णय करना होता है, जरा सा भी विलम्ब उसके लिए अहितकर या अनुचित हो सकता है। उस धर्मसंकटापन्न स्थिति में साधु उस स्त्री के समक्ष श्वास बन्द कर मृतकवत् हो जाए, अवसर पाकर गले से झूठ-मूठ फांसी लगाने का प्रयत्न करे, यदि इस पर उसका छुटकारा हो जाए तो ठीक, अन्यथा फिर वह गले में फांसी लगाकर, जीभ खींचकर मकान से कूदकर, पापात करके या विष-भक्षण आदि करके किसी भी प्रकार से शरीर त्याग दें, किन्तु स्त्रीसहवास आदि उपसर्ग या स्त्री-परिषह के वश में न हो, किसी भी मूल्य पर मैथुन - सेवन आदि स्वीकार न करे।
२२ परीषहों में स्त्री और सत्कार, ये दो शीत- परीषह हैं, शेष बीस परीषह उष्ण हैं । १
• प्रस्तुत सूत्र में शीतस्पर्श, स्त्री- परीषह या काम-भोग अर्थ में ही अधिक संगत प्रतीत होता है। अतः यहाँ बताया गया है कि दीर्घकाल तक शीतस्पर्शादि सहन न कर सकने वाला भिक्षु सुदर्शन सेठ की तरह अपने प्राणों का परित्याग कर दे ।
शास्त्रकार यही बात करते हैं - 'तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमादिए' - अर्थात् उस तपस्वी के लिए बहुत समय तक अनेक प्रकार के अन्यान्य उपाय आजमाए जाने पर भी उस स्त्री आदि के चंगुल से छूटना दुष्कर मालूम हो, तो उस तपस्वी के लिए यही एकमात्र श्रेयस्कर है कि वह वैहानस आदि उपायों में से किसी एक को अपना कर प्राणत्याग कर दे।
तत्थावि तस्स कालपरियाए - यहाँ शंका हो सकती है कि वैहानस आदि मरण तो बाल-मरण कहा गया हैं, वर्तमान युग की भाषा में इसे आत्म हत्या कहा जाता है, वह तो साधक के लिए महान् अहितकारी है, क्योंकि उससे तो अनन्तकाल तक नरक आदि गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - 'तत्थावि... ' ऐसे अवसर पर इस प्रकार वैहानस या गृद्धपृष्ठ आदि मरण द्वारा शरीर-विमोक्ष करने पर भी वह काल-मृत्यु होती है। जैसे काल-पर्यायमरण गुणकारी होता है, वैसे ही ऐसे अवसर पर वैहानसादि मरण भी गुणकारी होता है।
जैनधर्म अनेकान्तवादी है। यह सापेक्ष दृष्टि से किसी भी बात के गुणावगुण पर विचार करता है। ब्रह्म साधना (मैथुन - त्याग) के सिवाय एकान्तरूप से किसी भी बात का विधि या निषेध नहीं है; अपितु जिस बात का
आचा० शीला० टीका पत्रांक २७९
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