________________
अष्टम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र २१५
२४१
(४) उसका तप जिनेन्द्र द्वारा अनुज्ञात होता है। (५) उसे विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है।
सम्मत्तमेव समभिजाणिया - वृत्तिकार ने 'सम्मत्त' शब्द के दो अर्थ किए हैं - (१) सम्यक्त्व और समत्व। जहाँ 'सम्यक्त्व' अर्थ होगा, वहाँ इस वाक्य का अर्थ होगा - भगवत्कथित इस उपधि-विमोक्ष के सम्यक्त्व (सत्यता या सच्चाई) को भली-भाँति जानकर आचरण में लाए । जहाँ 'समत्व' अर्थ मानने पर इस वाक्य का अर्थ होगा - भगवदुक्त उपधि-विमोक्ष को सब प्रकार से सर्वात्मना जानकर सचेलक-अचेलक दोनों अवस्थाओं में समभाव का आचरण करे। शरीर-विमोक्ष : वैहानसादिमरण
२१५. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'पुट्ठो खलु अहमंसि, नालमहमंसि सीतफासं अहियासेत्तए,' से वसुमं सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयायाए आउट्टे ।
तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमादिए । तत्थावि तस्स कालपरियाए । से वि तत्थ वियंतिकारए । इच्चेतं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं ति बेमि ।
॥चउत्थो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ २१५. जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं (शीतादि परीषहों या स्त्री आदि के उपसर्गों से) आक्रान्त हो गया हूँ, और मैं इस अनुकूल (शीत) परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ, (वैसी स्थिति में) कोई-कोई संयम का धनी (वसुमान्) भिक्षु स्वयं को प्राप्त सम्पूर्ण प्रज्ञान एवं अन्तःकरण (स्व-विवेक) से उस स्त्री आदि उपसर्ग के वश न होकर उसका सेवन न करने लिए हट ( - दूर हो) जाता है।
उस तपस्वी भिक्षु के लिए वही श्रेयस्कर है, (जो एक ब्रह्मचर्यनिष्ठ संयमी भिक्षु को स्त्री आदि का उपसर्ग उपस्थित होने पर करना चाहिए) ऐसी स्थिति में उसे वैहानस (गले में फांसी लगाने की क्रिया, विषभक्षण, झंपापात आदि से) मरण स्वीकार करना - श्रेयस्कर है।
ऐसा करने में भी उसका वह (-मरण) काल-पर्याय-मरण (काल-मृत्यु) है। वह भिक्षु भी उस मृत्यु से अन्तक्रियाकर्ता (सम्पूर्ण कर्मों का क्षयकर्ता भी हो सकता है)।
इस प्रकार यह मरण प्राण-मोह से मुक्त भिक्षुओं का आयतन (आश्रय), हितकर, सुखकर, कालोपयुक्त या कर्मक्षय-समर्थ, निःश्रेयस्कर, परलोक में साथ चलने वाला होता है। - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - आपवादिक-मरण द्वारा शरीर-विमोक्ष - वैसे तो शरीर धर्म-पालन में अक्षम, असमर्थ एवं जीर्ण-शीर्ण, अशक्त हो जाए तो उस भिक्षु के द्वारा संलेखना द्वारा - समाधिमरण (भक्तपरिज्ञा, इंगितमरण एवं
१.
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २७७-२७८ (ख) स्थानांग, स्था० ५, उ०३ सू० २०१ आचा० शीला० टीका पत्रांक २७८ 'खमं' के बदले 'खेमं' शब्द किसी प्रति में मिलता है। क्षेम का अर्थ कुशल रूप है। "निस्सेसं' के बदले 'निस्सेसिमं' पाठान्तर है - 'निःश्रेयसकर्ता'।
३.