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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
उपकरण जिनकल्प की भूमिका पर स्थित एवं प्रतिमाधारक मुनि के होते हैं । यह उपधिविमोक्ष की एक साधना है।'
उपधि-विमोक्ष का उद्देश्य - इसका उद्देश्य यह है कि साधु आवश्यक उपधि से अतिरिक्त उपधि का संग्रह करेगा तो उसके मन में ममत्वभाव जागेगा, उसका अधिकांश समय उसे संभालने, धोने, सीने आदि में ही लग जाएगा, स्वाध्याय, ध्यान आदि के लिए नहीं बचेगा। २
यथाप्राप्त वस्त्रधारण- इस प्रकार के उपधि-विमोक्ष की प्रतिज्ञा के साथ शास्त्रकार एक अनाग्रहवृत्ति का भी सूचन करते हैं । वह है - जैसे भी जिस रूप में एषणीय-कल्पनीय वस्त्र मिलें, उन्हें वह उसी रूप में धारण करे, वस्त्र के प्रति किसी विशेष प्रकार का आग्रह संकल्प-विकल्पपर्ण बद्धि न रखे। वह उन्हें न तो फाडकर छोटा करे, न उसमें टकडा जोडकर बडा करे,न उसे धोए और न रंगे। यह विधान भी जिनकल्पी विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न मनि के लिए है। वह भी इसलिए कि वह साधु वस्त्रों को संस्कारित एवं बढ़िया करने में लग जाएगा तो उसमें मोह जागृत होगा, और विमोक्ष साधना में मोह से उसे सर्वथा मुक्त होना है। स्थविरकल्पी मुनियों के लिए कुछ कारणों से वस्त्र धोने का विधान है, किन्तु वह भी विभूषा एवं सौन्दर्य की दृष्टि से नहीं। शृंगार और साज-सज्जा की भावना से वस्त्र ग्रहण करने, पहनने, धोने आदि की आज्ञा किसी भी प्रकार के साधक को नहीं है, और रंगने का तो सर्वथा निषेध है ही।
ओमचेले - 'अवम' का अर्थ अल्प या साधारण होता है। अवम' शब्द यहाँ संख्या, परिमाण (नाप) और मूल्य - तीनों दृष्टियों से अल्पता या साधारणतया का द्योतक है। संख्या में अल्पता का तो मूलपाठ में उल्लेख है ही, नाप और मूल्य में भी अल्पता या न्यूनता का ध्यान रखना आवश्यक है। कम से कम मूल्य के, साधारण और थोड़े से वस्त्र से निर्वाह करने वाला भिक्षु 'अवमचेलक' कहलाता है।
'अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिवेजा' - यह सूत्र प्रतिमाधारी उपधि-विमोक्ष साधक की उपनि विमोक्ष की साधना का अभ्यास करने की दृष्टि से इंगित है । वह अपने शरीर को जितना कस सके कसे, जितना कम से कम वस्त्र से रह सकता है, रहने का अभ्यास करे। इसीलिए कहा है कि, ज्यों ही ग्रीष्म ऋतु आ जाए, साधक तीन वस्त्रों में से एक वस्त्र, जो अत्यन्त जीर्ण हो, उसका विसर्जन कर दे। रहे दो वस्त्र, उनमें से भी कर सकता हो तो एक वस्त्र कम कर दे, सिर्फ एक वस्त्र में रहे, और यदि इससे भी आगे हिम्मत कर सके तो बिल्कुल वस्त्ररहित हो जाए। इससे साधक को तपस्या का लाभ तो है ही, वस्त्र सम्बन्धी चिन्ताओं से मुक्त होने, लघुभूत (हलके-फुलके) होने का महालाभ भी मिलेगा।
शास्त्र में बताया गया है कि पाँच कारणों से अचेलक प्रशस्त होता है। जैसे कि - (१) उसकी प्रतिलेखना अल्प होती है। (२) उसका लाघव प्रशस्त होता है। (३) उसका रूप (वेश) विश्वास योग्य होता है। आचा० शीला टीका पत्रांक २७७ -
पत्ते पत्ताबंधो पायट्रवणं च पायकेसरिआ ।
पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पायणिज्जोगो ॥ २. आचारांग (आ० श्री आत्माराम जी महाराज कृत टीका) पृ०५७८ ३. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २७७
(ख) आचारांग (आत्माराम जी महारात कृत टीका पृ०५७८ पर से) ४. आचा० शीला० टीका पत्रांक २७७
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आचार