________________
अष्टम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक: सूत्र २१३-२१४
यथापरिगृहीत (जैसे भी वस्त्र मिले हैं या लिए हैं, उन ) वस्त्रों को धारण करे ।
वह उन वस्त्रों को न तो धोए और न रंगे, न धोए रंगे हुए, वस्त्रों को धारण करे। दूसरे ग्रामों में जाते समय वह उन वस्त्रों को बिना छिपाए हुए चले। वह (अभिग्रहधारी) मुनि (परिणाम और मूल्य की दृष्टि से) स्वल्प और अतिसाधारण वस्त्र रखे। वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री ( धर्मोपकरणसमूह ) है ।
जब भिक्षु यह जान ले कि 'हेमन्त ऋतु' बीत गयी है, ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जिन-जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे, उनका परित्याग कर दे। उन यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो (उस क्षेत्र में शीत अधिक पड़ता हो तो) एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर ( ऊनी) वस्त्र साथ में रखे; अथवा वह एकशाटक (एक ही चादर-पछेड़ी वस्त्र) वाला होकर रहे । अथवा वह (रजोहरण और मुखवस्त्रिका के सिवाय उन वस्त्रों को छोड़कर) अचेलक (निर्वस्त्र) हो जाए।
(इस प्रकार) लाघवता (अल्प उपधि) को लाता या उसका चिन्तन करता हुआ वह (मुनि वस्त्र - परित्याग करे) उस वस्त्रपरित्यागी मुनि के (सहज में ही) तप ( उपकरण - ऊनोदरी और कायक्लेश) सध जाता है।
भगवान् ने जिस प्रकार से इस (उपधि - विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराई - पूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) (उसमें निहित ) समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे ।
२३९
विवेचन - विमोक्ष (मुक्ति) की साधना में लीन श्रमण को संयम - रक्षा के लिए वस्त्र - पात्र आदि उपधि भी रखनी पड़ती है। शास्त्र में उसकी अनुमति है । किन्तु अनुमति के साथ यह भी विवेक-निर्देश किया है कि वह अपनी आवश्यकता को कम करता जाय और उपधि-संयम बढ़ाता रहे, उपधि की अल्पता 'लाघव-धर्म' की साधना है। इस दिशा में भिक्षु स्वतः ही विविध प्रकार के संकल्प व प्रतिज्ञा लेकर उपधि आदि की कमी करता रहता है। प्रस्तुत सूत्र में इसी विषय पर प्रकाश डाला है । वृत्ति-संयम के साथ पदार्थ-त्याग का भी निर्देश किया है।
प्रस्तुत दोनों सूत्र वस्त्र-पात्रांदि रूप बाह्य उपधि और राग, द्वेष, मोह एवं आसक्ति आदि आभ्यन्तर उपधि से विमोक्ष की साधना की दृष्टि से प्रतिमाधारी या (जिनकल्पिक) श्रमण के विषय में प्रतिपादित हैं। जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र (पात्रनिर्योगयुक्त), इतनी उपधि रखने की अर्थात् इस उपधि के सिवाय अन्य उपधि न रखने की प्रतिज्ञा लेता है, वह 'कल्पत्र प्रतिमा प्रतिपन्न' कहलाता है। उसका कल्पत्रय औघ-औपधिक होता है, औपग्राहिक नहीं । शिशिर आदि शीत ऋतु में दो सूती (क्षौमिक) वस्त्र तथा तीसरा ऊन का वस्त्र - यों कल्पत्रय स्वीकार करता है । जिस मुनि ने ऐसी कल्पत्रय की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि शीतादि का परीषह उत्पन्न होने पर भी चौथे वस्त्र को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करे। यदि उसके पास अपनी ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा (कल्प) से कम वस्त्र हैं, तो वह दूसरा वस्त्र ले सकता है।
पात्र - निर्योग - टीकाकार ने पात्र के सन्दर्भ में सात प्रकार के पात्र - निर्योग का उल्लेख किया है और पात्र ग्रहण करने के साथ-साथ पात्र से सम्बन्धित सामान भी उसी के अन्तर्गत माना गया है। जैसे- १. पात्र, २. पात्रबन्धन, ३. पात्र-स्थापन, ४. पात्र-केसरी (प्रमार्जनिक), ५. पटल, ६. रजस्त्राण और ७. पात्र साफ करने का वस्त्र - • गोच्छक, ये सातों मिलकर पात्रनिर्योग कहलाते हैं। ये सात उपकरण तथा तीन पात्र तथा रजोहरण और मुखवस्त्रिका, यों १२