________________
अष्टम अध्ययन : तृतीय उद्देशक
२३७
संचाएमि अहियासेत्तए । णो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालित्तए वा पज्जालित्तए वा कार्य आयावित्तए वा पयावित्तए वा अण्णेसिं वा वयणाओ ।
२१२. सिया एवं वंदतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता कार्यं आयावेजा वा पयावेज्जा वा। तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए त्ति बेमि ।
॥ तइओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥
२११.
. शीत-स्पर्श से कांपते हुए शरीरवाले उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति कहे - आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्रामधर्म (इन्द्रिय-विषय) तो पीड़ित नहीं कर रहे हैं ? ( इस पर मुनि कहता है ) - आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म पीड़ित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ (इसलिए मेरा शरीर शीत से प्रकम्पित हो रहा है) ।
('तुम अग्नि क्यों नहीं जला लेते ?' इस प्रकार गृहपति के कहे जाने पर मुनि कहता है - ) अग्निकाय को उज्ज्वलित करना, प्रज्वलित करना, उससे शरीर को थोड़ा-सा भी तपाना या दूसरों को कहकर अग्नि प्रज्वलित करवाना अकल्पनीय है।
२१२. (कदाचित् वह गृहस्थ) इस प्रकार बोलने पर अग्निकाय को उज्ज्वलित प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा तपाए या विशेष रूप से तपाए।
उस अवसर पर अग्निकाय के आरम्भ को भिक्षु अपनी बुद्धि से विचारकर आगम के द्वारा भलीभाँति जानकर उस गृहस्थ से कहे कि अग्नि का सेवन मेरे लिए असेवनीय है, (अतः मैं इसका सेवन नहीं कर सकता) । - - ऐसा मैं कहता हूँ ।
-
विवेचन - ग्रामधर्म की आशंका और समाधान - सूत्र २११ में किसी भावुक गृहस्थ की आशंका और समाधान का प्रतिपादन है। कोई भिक्षाजीवी युवक साधु भिक्षाटन कर रहा है, उस समय शरीर पर पूरे वस्त्र न होने के कारण शीत से थर-थर काँपते देख, उसके निकट आकर ऐश्वर्य की गर्मी से युक्त, तरुण नारियों सें परिवृत्त, शीतस्पर्श का अनुभवी, सुगन्धित पदार्थों से शरीर को सुगन्धित बनाए हुए कोई भावुक गृहस्थ पूछने लगे कि 'आप काँपते क्यों हैं ? क्या आपको ग्राम-धर्म उत्पीड़ित कर रहा है ?' इस प्रकार की शंका प्रस्तुत किए जाने पर साधु उसका अभिप्राय जान लेता है कि इस गृहपति को अपनी गलत समझ के कारण कामिनियों के अवलोकन की मिथ्या
१.
२.
-
'सिया एव' का अर्थ चूर्णिकार ने किया है- सिया- कयायि, एवमवधारणे - सिया का अर्थ कदाचित् तथा एवं यहाँ अवधारण - निश्चय अर्थ में है ।
चूर्णि के अनुसार यहाँ पाठान्तर है - "से एवं वयंतस्स परो पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीतं पामिच्चं अच्छिज्जं अणिसट्टं अगणिकायं उज्जालित्ता पज्जालित्ता वा तस्स आतावेति वा पतावेति वा । तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए त्ति बेमि । " कदाचित् इस प्रकार कहते हुए (सुनकर) कोई पर (गृहस्थ ) प्राण, जीव और सत्त्वों का उपमर्दन रूप आरम्भ करके उस भिक्षु के उद्देश्य से खरीदी हुई, उधार ली हुई, छीनी हुई, दूसरे की चीज को उसकी अनुमति के बिना ली हुई वस्तु से अग्निकाय जलाकर, विशेष प्रज्वलित करके, उस भिक्षु के शरीर को थोड़ा या अधिक तपाए, तब वह भिक्षु उसे देखकर आगम से उसके दोष जानकर उक्त गृहस्थ को बतादे कि मेरे लिए इसे सेवन करना उचित नहीं है। ऐसा मैं कहता