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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
के लिए, (४) प्राणिदया के लिए, (५) तप के लिए तथा (६) शरीर-त्याग के लिए आहार-त्याग करना चाहिए।
___इसीलिए 'ओए दयं दयति' इस वाक्य द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है कि क्षुधा-पिपासादि परीषहों से प्रताड़ित होने पर भी राग-द्वेष रहित साधु प्राणिदया का पालन करता है, वह दोषयुक्त या अकारण आहार ग्रहण नहीं करता।
'संणिधाणसत्थस्स खेत्तण्णे' - इस सूत्र पंक्ति में 'सन्निधानशस्त्र' शब्द के वृत्तिकार ने दो अर्थ किये हैं
(१) जो नारकादि गतियों को अच्छी तरह धारण करा देता है, वह सन्निधान - कर्म है। उसके स्वरूप का निरूपक शास्त्र सन्निधानशास्त्र है, अथवा
(२) सन्निधान यानी कर्म, उसका शस्त्र (विघातक) है - संयम, अर्थात् सन्निधान-शस्त्र का मतलब हुआ कर्म का विघातक संयमरूपी शस्त्र । उस सन्निधानशास्त्र या सन्निधानशस्त्र का खेदज्ञ अर्थात् उसमें निपुण; यही अर्थ चूर्णिकार ने भी किया है। परन्तु सन्निधान का अर्थ यहाँ आहार योग्य पदार्थों की सन्निधि यानी संचय या संग्रह' अधिक उपयुक्त लगता है। लोकविजय के पांचवें उद्देशक में इसके सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। उसके सन्दर्भ में सन्निधान का यही अर्थ संगत लगता है। अकारण-आहार-विमोक्ष के प्रकरण में आहार योग्य पदार्थों का संग्रह करने के सम्बन्ध में कहना प्रासंगिक भी है। अतः इसका स्पष्ट अर्थ हुआ - भिक्षु आहारादि के संग्रहरूपशस्त्र (अनिष्टकारक बल) का क्षेत्रज्ञ-अन्तरंग मर्म का ज्ञाता होता है । भिक्षु भिक्षाजीवी होता है। आहारादि का संग्रह करना उसकी भिक्षाजीविता पर कलंक है। ३
कालज्ञ आदि सभी विशेषण भिक्षाजीवी तथा अकारण आहार-विमोक्ष के साधक की योग्यता प्रदर्शित करने के लिए हैं। लोकविजय अध्ययन के पंचम उद्देशक (सूत्र ८८) में भी इसी प्रकार का सूत्र है, और वहाँ कालज्ञ आदि शब्दों की व्याख्या भी की है। यह सूत्र भिक्षाजीवी साधु की विशेषताओं का निरूपण करता है। _"णियाति' - का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार है - 'जो संयमानुष्ठान में निश्चय से प्रयाण करता है।' इसका तात्पर्य है - संयम में निश्चिन्त होकर जीवन-यापन करता है। ५ अग्नि-सेवन-विमोक्ष
२११. तं भिक्खुं सीतफासपरिवेवमाणगातं उवसंकमित्तु गाहावती बूया - आउसंतो समणा ! णो खलु ते गामधम्मा उब्बाहंति ? आउसंतो गाहावती ! णो खलु मम गामधम्मा उब्बाहंति।सीतफासं णो खलु अहं
३.
उत्तराध्ययन अ० २६ गा० ३५ २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २७५ (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २७५ (ख) आयारो (मुनि नथमल जी) के आधार पर पृ० ९३, २१३ (ग) दशवकालिक सूत्र में अ०३ में 'सन्निही' नामक अनाचीर्ण बताया गया है तथा 'सन्निहिं च नकुव्वेजा, अणुमायं पि
संजए' - (अ०८, गा० २८) में सन्निधि - संग्रह का निषेध किया है। देखें सूत्र ८८ का विवेचन पृष्ठ ५६ ५. आचा० शीला० टीका पत्रांक २७५ चूर्णि में इस प्रकार का पाठान्तर है - बेति-“हे आउंस अप्पं खलु मम गामधम्मा उब्बाहंति" - इसका अर्थ किया गया है - "अप्पंति अभावे भवति थोवे य, एत्य अभावे।" - अर्थात् मुनि कहता है - हे आयुष्मन् ! निश्चय ही मुझे ग्रामधर्म बाधित नहीं करता।''अप्प' शब्द अभाव अर्थ में और थोड़े अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ अभाव अर्थ में प्रयुक्त है। यहाँ भी चूर्णि में पाठान्तर है - "सीयफासं च हं णो सहामि अहियासित्तए" - अर्थात् मैं शीतस्पर्श को सहन नहीं कर सकता।