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________________ अष्टम अध्ययन : तृतीय उद्देशक: सूत्र २१० २३५ दोषयुक्त आहार का ग्रहण नहीं करता) । वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षणज्ञ (अवसरज्ञाता), विनयज्ञ ( भिक्षाचरी) के आचार का मर्मज्ञ, समयज्ञ (सिद्धान्त का ज्ञाता) होता है। वह परिग्रह पर ममत्व न करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान (कार्य) करने वाला, किसी प्रकार की मिथ्या आग्रह- युक्त प्रतिज्ञा से रहित एवं राग और द्वेष के बन्धनों को दोनों ओर से छेदन करके निश्चिन्त होकर नियमित रूप से संयमी जीवन यापन करता है । विवेचन - सव्विंदिएहिं परिगिलायमाणेहिं - इस सूत्र में आहार करने का कारण स्पष्ट कर दिया है कि आहार करने से शरीर पुष्ट होता है, किन्तु शरीर को पुष्ट और सशक्त रखने के उद्देश्य हैं- संयमपालन करना और परीषहादि सहन करना । किन्तु जो कायर, क्लीब और भोगाकांक्षी होते हैं, शरीर से सम्पुष्ट और सशक्त होते हुए भी जो मन के दुर्बल होते हैं, उनके शरीर परीषहों के आ पड़ते ही वृक्ष की डाली की तरह कट कर टूट पड़ते हैं । सारा देह टूट जाता है, परीषहों के थपेड़ों से इतना ही नहीं, उनकी सभी इन्द्रियाँ मुर्झा जाती है। जैसे क्षुधा से पीड़ित होने पर आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है, कानों से सुनना और नाक से सूँघना भी कम हो जाता है। तात्पर्य यह है कि आहार केवल शरीर को पुष्ट करने के लिए ही नहीं, अपितु कर्ममुक्ति के लिए है, अतएव शास्त्रोक्त ६ कारण से इसे आहार देना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में एक निष्कर्ष स्पष्टतः प्रतिफलित होता है कि साधक को कारणवश आहार ग्रहण करना चाहिए और अकारण आहार से विमुक्त भी हो जाना चाहिए । ' उत्तराध्ययन सूत्र में साधु को ६ कारणों से आहार करने का विधान है १ - १. २. छण्हं अन्नयराए कारणम्मि ं समुट्ठिए । वेयण - वेयावच्चे इरियट्ठाए संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिन्ताए ॥ - साधु को इन छः कारणों में से किसी कारण के समुपस्थित होने पर आहार करना चाहिए - (१) क्षुधावेदनीय को शान्त करने के लिए । (२) साधुओं की सेवा करने के लिए। (३) ईर्यासमिति - पालन के लिए। (४) संयम - पालन के लिए। (५) प्राणों की रक्षा के लिए। और (६) स्वाध्याय, धर्मध्यान आदि करने के लिए । इन कारणों के सिवाय केवल बल-वीर्यादि बढ़ाने के लिए आहार करना अकारण - दोष है। उत्तराध्ययन सूत्र में ६ कारणों में से किसी एक के समुपस्थित होने पर आहार-त्याग का भी विधान है। - आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहेउं सरीरं वोच्छेयणट्ठाए ॥ (१) रोगादि आतंक होने पर, (२) उपसर्ग आने पर, परीषहादि की तितिक्षा के लिए, (३) ब्रह्मचर्य की रक्षा आचा० शीला० पत्रांक २७४ (क) उत्तराध्ययनसूत्र अ० २६ गा० ३२-३३ (ख) धर्मसंग्रह अधि० ३ श्लो०- ३३ टीका (ग) पिण्डनिर्युक्ति ग्रासैषणाधिकार गा० ६३५
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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