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चिन्तन करते हुए लिखा है कि पद अर्थ का वाचक और द्योतक है। बैठना, बोलना, अश्व, वृक्ष आदि पद वाचक कहलाते हैं। प्र, परि, च, वा आदि अव्यय पदों को द्योतक कहा जाता है। पद के नामिक, नैपातिक, औपसगिक, आख्यातिक और मिश्र आदि प्रकार हैं। अनुयोगद्वार वृत्ति दशवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णी २ दशवैकालिक हारिभद्रीयावृत्ति आचारांग शीलांक वृत्ति ४ में उदाहरण सहित पद का स्वरूप प्रतिपादित किया है। आचार्य देवेन्द्रसरिने ५ पद की व्याख्या करते 'अर्थसमाप्ति का नाम पद है।' पर आचारांग आदि में अठारह हजार पद बताये गए हैं। किन्तु पद के परिमाण के सम्बन्ध में परम्परा का अभाव होने से पद का सही स्वरूप जानना कठिन है। प्राचीन टीकाकारों ने भी स्पष्ट रूप से कोई समाधान नहीं किया है।
जयधवला में प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यमपद, ये तीन प्रकार बताये हैं। आठ अक्षरों वाला प्रमाण पद है। चार प्रमाण पदों का एक श्लोक या गाथा होती है। जितने अक्षरों से अर्थ का बोध हो वह अर्थपद है। १६३४८३०७८८८ अक्षरों वाला मध्यम पद कहलाता है। जयधवला का अनुसरण ही धवला, गोम्मटसार, अंगपण्णत्ती में हुआ है। प्रस्तुत दृष्टि से आचारांग के अठारह हजार पदों के अक्षरों की संख्या की परिगणना २९४ २६९ ५४१ १९८ ४००० होती है। और अठारह हजार पदों के श्लोकों की संख्या ९१९ ५९२ २३११ ८७००० बताई गई है।
यह एक ज्वलन्त सत्य है कि जो पद-परिमाण प्रतिपादित किया गया है उस में कालक्रम की दष्टि से बहत कई परिवर्तन हुआ है। वर्तमान में जो आचारांग उपलब्ध है उसमें कितनी ही प्रतियों में दो हजार छ: सौ चमालीस श्लोक प्राप्त होते हैं तो कितनी ही प्रतियों में दो हजार चार सौ चौपन, तो कितनी प्रतियों में दो हजार पांच सौ चौपन भी मिलते हैं। यदि हम तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करें तो सूर्य के उजाले की भाँति यह ज्ञात हुये बिना नहीं रहेगा कि जैन आगम-साहित्य के साथ ही यह बात नहीं हुई है किन्तु बौद्ध त्रिपिटिक-मज्झिम निकाय, दीघनिकाय, संयुक्त निकाय में जो सूत्र संख्या बताई गई है वह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। वही बात वैदिक-परम्परा मान्य ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् और पुराण-साहित्य के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। मैं चाहूंगा कि आगम के मूर्धन्य मनीषी गण इस सम्बन्ध में प्रमाण पुरस्सर तर्कयुक्त समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास करें।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि समवायांग और नन्दी सूत्र में आचारांग की जो अठारह हजार पद-संख्या बताई है वह केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध के नव ब्रह्मचर्य अध्ययनों की है, यह बात आचार्य भद्रबाहु और अभयदेवसूरि ने पूर्ण रूप से स्पष्ट की है। यह हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि महापरिज्ञा अध्ययन चूर्णिकार के पश्चात् विच्छिन्न हो गया है। यह सत्य है कि आचार्य शीलांक के पहले उसका विच्छेद हुआ है। ऐसी अनुश्रुति है कि महापरिज्ञा अध्ययन में ऐसे अनेक चामत्कारिक मन्त्र आदि विद्याएँ थीं जिसके कारण गम्भीर पात्र के अभाव में उसका पठन-पाठन बन्द कर दिया गया। पर, प्रस्तुत अनुश्रुति के पीछे ऐतिहासिक प्रबल-प्रमाण का अभाव है। नियुक्तिकार का ऐसा अभिमत है कि आचार-चूला के सातों अध्ययन महापरिज्ञा के सात उद्देशकों से नियूंढ किये गये हैं। इससे यह स्पष्ट है कि महापरिज्ञा में जिन विषयों पर चिन्तन किया गया उन्हीं विषयों पर सातों अध्ययनों में चिन्तन-निर्मूढ किया गया हो। मनीषियों का ऐसा भी मानना है कि महापरिज्ञा से उद्धृत सातों अध्ययन पठन-पाठन में व्यवहृत होने लगे तब महापरिज्ञा अध्ययन का पठन-पाठन बन्द हो गया होगा अथवा उसके अध्ययन की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाने लगी होगी। जिससे वह विच्छन्न हुआ। १. अनुयोगद्वार वृत्ति पृष्ठ २४३-२४४
दशवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि, पृष्ठ ९ दशवैकालिक हारिभद्रीयावृत्ति १ । १ आचारांग शीलांकवृत्ति ११
कर्मग्रन्थ - प्रथम कर्मग्रन्थ गाथा ७ ___ आचारांग नियुक्ति गाथा-२९०
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