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________________ २३२ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध समझाए। दूसरी स्थिति से विमुक्त होने का उपाय - किसी तरह से जान-सुनकर उस आहरादि को ग्रहण एवं सेवन करना अस्वीकार करे और तीसरी स्थिति आ पड़ने पर साधु धैर्य और शान्ति से समभावपूर्वक उस परीषह या उपसर्ग को सहन करे। इस प्रकार उस गृहस्थ को अनुकूल देखे तो साधु के अनुपम आचार के विषय में बताये, प्रतिकूल हो तो मौन रहे । इस प्रकार अकल्पनीय-विमोक्ष की सुन्दर झाँकी शास्त्रकार ने प्रस्तुत की है। एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि साधु के द्वारा उक्त अकल्पनीय पदार्थों को अस्वीकार करने या उस भावुकहृदय गृहस्थ को समझाने का तरीका भी शान्ति, धैर्य एवं प्रेम पूर्ण होना चाहिए। वह दाता गृहस्थ को द्वेषी, वैरी या विद्रोही न समझे, किन्तु भद्रमनस्क और सवचस्क या सवयस्क (मित्र) समझ कर कहे । इसका एक अर्थ यह भी है कि भिक्षु उस गृहस्थ को सम्मान सहित, सुवचनपूर्वक निषेध करे। २ समनोज्ञ-असमनोज्ञ आहरा-दान विधि-निषेध २०७. से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं वा ४३ वत्थं वा ४*णो पाएजा णो णिमंतेजा णो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्ति बेमि। २०८. धम्ममायाणह पवेदितं माहणेण मतिमता - समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा ४५ वत्थं वा ४६ पाएज्जा णिमंतेज्जा कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्ति बेमि । ॥बीओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ २०७. वह समनोज्ञ मुनि असमनोज्ञ साधु को अशन-पान आदि तथा वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ अत्यन्त आदरपूर्वक न दे, न उन्हें देने के लिए निमन्त्रित करे और न ही उनका वैयावृत्य करे। - ऐसा मैं कहता हूँ। २०८. मतिमान् (केवलज्ञानी) महामाहन भी श्री वर्धमान स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म (आचारधर्म) को भली-भाँति समझ लो कि समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि दे, उन्हें देने के लिए मनुहार करे, उनका वैयावृत्य करे। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - कहाँ निषेध, कहाँ विधान? - सूत्र २०६ तक अकल्पनीय आहारादि लेने का निषेध किया गया है। सूत्र २०७ में असमनोज्ञ को समनोज्ञ साधु द्वारा आहारादि देने, उनके लिए निमन्त्रित करने और उनकी सेवा करने का निषेध किया है, जबकि सूत्र २०८ में समनोज्ञ साधुओं को समनोज्ञ साधुओं द्वारा उपर्युक्त वस्तुएँ देने का विधान ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ १. आचारांग टीका पत्रांक २७०-२७१-२७२ के आधार पर २. (क) आचा० टीका पत्रांक २७१, (ख) आचा० चूर्णि, मूल पाठ के टिप्पण ३-४. यहाँ दोनों जगह शेष पाठ १९९ सूत्रानुसार पढ़ें ५-६. यहाँ दोनों जगह शेष पाठ १९९ सूत्रानुसार पढ़ें ७. आचा० शीला० टीका० पत्रांक २७३
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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