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अष्टम् अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र २०४-२०६
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है, क्योंकि वहाँ किसी प्रकार के प्रमाद या स्खलन से व्यन्तर आदि देवों के उपद्रव की सम्भावना बनी रहती है तथा प्राणिमात्र के प्रति आत्मभावना होने पर भी जिनकल्पी के लिए सामान्य स्थिति में श्मशान में निवास करने की आज्ञा नहीं है। प्रतिमाधारी मुनि के लिए यह नियम है कि जहाँ सूर्य अस्त हो जाए, वहीं उसे ठहर जाना चाहिए। अतः जिनकल्पी प्रतिमाधारक की अपेक्षा से ही श्मशान-निवास का उल्लेख प्रतीत होता है। इसीलिए चूर्णि में व्याख्या की गई है - श्मशान के पास खड़ा होता है, शून्यगृह के निकट या वृक्ष के नीचे अथवा पर्वतीय गुफा में ठहरता है।
वर्तमान में सामान्यतया स्थविरकल्पी गच्छवासी साधु बस्ती में किसी उपाश्रय या मकान में ठहरता है। हाँ, विहार कर रहा हो, उस समय कई बार उसे स्थान न मिलने या सूर्यास्त हो जाने के कारण शून्यगृह में, वृक्ष के नीचे या जंगल में किसी स्थान में ठहरना होता है। प्राचीनकाल में तो गाँव के बाहर किसी बगीचें आदि में ठहरने का आम रिवाज था। साधु कहीं भी ठहरा हो, वह भिक्षा के लिए स्वयं गृहस्थों के घरों में जाता है और आहार आदि आवश्यक पदार्थ अपनी कल्पमर्यादा के अनुसार प्राप्त होने पर ही लेता है। कोई गृहस्थ भक्तिवश या किसी लौकिक स्वार्थवश उसके लिए बनवाकर, खरीदकर, किसी से छीनकर, चुराकर या अपने घर से सामने लाकर दे तो उस वस्तु का ग्रहण करना उसकी आचार-मर्यादा के विपरीत है। वह ऐसी वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकता, जिसमें उसके निमित्त हिंसादि आरम्भ हुआ हो।
अगर ऐसी विवशता की परिस्थिति आ जाए और कोई भावुक गृहस्थ उपर्युक्त प्रकार से उसे आहारादि लाकर देने का अति आग्रह करने लगे तो उस भावुक हृदय हितैषी भक्त को धर्म से, प्रेम से, शान्ति से वैसा आहरादि न देने के लिए समझा देना चाहिए, साथ ही अपनी कल्पमर्यादाएँ भी उसे समझाना चाहिए। यह अकल्पनीय विमोक्ष की विधि है। ३
अकल्पनीय स्थितियाँ और विमोक्ष के उपाय - सूत्र २०४ से लेकर २०६ तक में शास्त्रकार ने भिक्षु के समक्ष आने वाली तीन अकल्पनीय परिस्थितियाँ और साथ ही उनसे मुक्त होने या उन परिस्थितियों में अकरणीयअनाचरणीय कार्यों से अलग रहने या छुटकारा पाने के उपाय भी बताए हैं -
(१) भिक्षु को किसी प्रकार के संकट में पड़ा या कठोर कष्ट पाता देखकर किसी भावुक भक्त द्वारा उसके समक्ष आहरादि बनवा देने, मोल लाने, छीनकर तथा अन्य किसी भी प्रकार से सम्मुख लाकर देने या उपाश्रय बनवा देने का प्रस्ताव।
(२) भिक्षु को कहे-सुने बिना अपने मन से ही भक्तिवश आहारादि बनवाकर या उपर्युक्त प्रकारों में से किसी भी प्रकार से लाकर देने लगना तथा उपाश्रय बनवाने लगना, और
(३) उन आहारादि तथा उपाश्रय को आरम्भ-समारम्भ जनित एवं अकल्पनीय जानकर भिक्षु जब उन्हें किसी स्थिति में अपनाने से साफ इन्कार कर देता है तो उस दाता की ओर से क्रुद्ध होकर उस भिक्षु को तरह-तरह से यातनाएँ दिया जाना।
प्रथम अकल्पनीय ग्रहण की स्थिति से विमुक्त होने के उपाय - प्रेम से अस्वीकार करे और 'कल्पमर्यादा' आचा० शीला० टीका पत्रांक २७० चूर्णि में व्याख्या मिलती है - 'सुसाणस्स पासे हातिं अब्भासे वा सुण्णधरे वा ठितओ होज, रुक्खमूले वा, जारिसो रुक्खमूलो णिसीहे भणितो, गिरि गुहाए वा ।'
- आचा० चूर्णि आचा० मूलपाठ पृ०७२ ३. आचारांग आचार्य श्री आत्माराम जी म० कृत टीका के आधार पर, पृ० ५५९