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________________ २३० . आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध लेकर, उधार लाकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे के अधिकार की वस्तु उसकी बिना अनुमति के लाकर, अथवा घर से लाकर देना चाहता है या उपाश्रय का निर्माण या जीर्णोद्धार कराता है, वह (यह सब) उस भिक्षु के उपभोग के या निवास के लिए (करता है)। (साधु के लिए किए गए) उस (आरम्भ) को वह भिक्षु अपनी सद्बुद्धि से दूसरों (अतिशयज्ञानियों) के उपदेश से या तीर्थंकरों की वाणी से अथवा अन्य किसी उसके परिजनादि से सुनकर यह जान जाए कि यह गृहपति मेरे लिए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के समारम्भ से अशनादि या वस्त्रादि बनवाकर या मेरे निमित्त मोल लेकर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे की वस्तु उसके स्वामी से अनुमति प्राप्त किए बिना लाकर अथवा अपने धन से उपाश्रय बनवा रहा है, भिक्षु उसकी सम्यक् प्रकार से पर्यालोचना (छान-बीन) करके, आगम में कथित आदेश से या पूरी तरह जानकर उस गृहस्थ को साफ-साफ बता दे कि ये सब पदार्थ मेरे लिए सेवन करने योग्य नहीं हैं; (इसलिए मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता)। इस प्रकार मैं कहता हूँ। .. . २०६. भिक्षु से पूछकर (सम्मति लेकर) या बिना पूछे ही (मैं अवश्य दे दूँगा, इस अभिप्राय से) किसी गृहस्थ द्वारा (अन्धभक्तिवश) बहुत धन खर्च करके बनाये हुए ये (आहारादि पदार्थ) भिक्षु के समक्ष भेंट के रूप में लाकर रख देने पर (जब मुनि उन्हें स्वीकार नहीं करता), तब वह उसे परिताप देता है; वह सम्पन्न गृहस्थ क्रोधावेश में आकर स्वयं उस भिक्षु को मारता है, अथवा अपने नौकरों को आदेश देता है कि इस (-व्यर्थ ही मेरा धन व्यय कराने वाले साधु) को डंडे आदि से पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ-पैर आदि अंग काट डालो, इसे जला दो, इसका मांस पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो या इसे नखों से नोंच डालो, इसका सब कुछ लूट लो, इसके साथ जबर्दस्ती करो अथवा जल्दी ही इसे मार डालो, इसे अनेक प्रकार से पीड़ित करो।" उन सब दुःखरूप स्पर्शों (कष्टों) के आ पड़ने पर धीर (अक्षुब्ध) रहकर मुनि उन्हें (समभाव से) सहन करे। अथवा वह आत्मगुप्त (आत्मरक्षक) मुनि अपने आचार-गोचर (पिण्ड-विशुद्धि आदि आचार) की क्रमशः सम्यक् प्रेक्षा करके (पहले अशनादि बनाने वाले पुरुष के सम्बन्ध में भलीभाँति ऊहापोह करके (यदि वह मध्यस्थ या प्रकृतिभद्र लगे तो) उसके समक्ष अपना अनुपम आचार-गोचर (साध्वाचार) कहे - बताए। अगर वह व्यक्ति दुराग्रही और प्रतिकूल हो, या स्वयं में उसे समझाने की शक्ति न हो तो वचन का संगोपन (मौन) करके रहे । बुद्धोंतीर्थंकरों ने इसका प्रतिपादन किया। विवेचन - इस उद्देशक में साधु के लिए अनाचरणीय या अपनी कल्पमर्यादा के अनुसार कुछ अकरणीय बातों से विमुक्त होने का विभिन्न पहलुओं से निर्देश किया है। से भिक्खू परक्कमेज वा.- यहाँ वृत्तिकार ने विमोक्ष के योग्य भिक्षु की विशेषताएं बताई हैं - जिसने यावज्जीवन सामायिक की प्रतिज्ञा ली है, पंचमहाव्रतों का भार ग्रहण किया है, समस्त सावध कार्यों का त्याग किया है, और जो भिक्षाजीवी है, वह भिक्षा के लिए या अन्य किसी आवश्यक कार्य से परिक्रमण-विचरण कर रहा है। यहाँ परिक्रमण का सामान्यतया अर्थ गमनागमन करना होता है। ससाणंसि - प्रस्तत सत्र-पंक्ति में श्मशान में लेटना, करवट बदलना या शयन करना प्रतिमाधारक या जिनकल्पी मुनि के लिए ही कल्पनीय है; स्थविरकल्पी के लिए तो श्मशान में ठहरना, सोना आदि कल्पनीय नहीं १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २७०
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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