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अष्टम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र २०४-२०६
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२०६. भिक्खं च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति, से हंता हणह खणह छिंदहर दहह पचह आलुंपह विलुपह सहसक्कारेह विप्परामुसह ३। ते फासे पुट्ठो धीरो अहियासए । अदुवा आयारगोयरमाइक्खे तक्कियाणमणेलिसं ।अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुव्वेण सम्म पडिलेहाए आयगुत्ते। बुद्धेहिं एवं पवेदितं ।
२०४. (सावद्यकार्यों से निवृत्त) वह भिक्षु (भिक्षादि किसी कार्य के लिए) कहीं जा रहा हो, श्मशान में, सूने मकान में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के नीचे, कुम्भारशाला में या गाँव के बाहर कहीं खड़ा हो, बैठा हो या लेटा हुआ हो अथवा कहीं भी विहार कर रहा हो, उस समय कोई गृहपति उस भिक्षु के पास आकर कहे - "आयुष्मन् श्रमण! मैं आपके लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल. या पादपोंछन; प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ (उपमर्दन) करके आपके उद्देश्य से बना रहा हूँ या (आपके लिए) खरीद कर, उधार लेकर, किसी से छीनकर, दूसरे की वस्तु को उसकी बिना अनुमति के लाकर, या घर से लाकर आपको देता हूँ अथवा आपके लिए उपाश्रय (आवसथ) बनवा देता हूँ। हे आयुष्मन् श्रमण ! आप उस (अशन आदि) का उपभोग करें और (उस उपाश्रय में) रहें।"
भिक्षु उस सुमनस् (भद्रहृदय) एवं सुवयस (भद्र वचन वाले) गृहपति को निषेध के स्वर से कहे - आयुष्मन् गृहपति ! मैं तुम्हारे इस वचन को आदर नहीं देता, न ही तुम्हारे वचन को स्वीकार करता हूँ, जो तुम प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का समारम्भ करके मेरे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन बना रहे हो या मेरे ही उद्देश्य से उसे खरीदकर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, दूसरे की वस्तु उसकी अनुमति के बिना लाकर अथवा अपने घर से यहाँ लाकर मुझे देना चाहते हो, मेरे लिए उपाश्रय बनवाना चाहते हो । हे आयुष्मन् गृहस्थ! मैं (इस प्रकार के सावध कार्य से सर्वथा) विरत हो चुका हूँ। यह (तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत बात मेरे लिए) अकरणीय होने से, (मैं स्वीकार नहीं कर सकता)।
२०५. वह भिक्षु (कहीं किसी कार्यवश) जा रहा है, श्मशान, शून्यगृह, गुफा या वृक्ष के नीचे या कुम्भार की शाला में खड़ा, बैठा या लेटा हुआ है, अथवा कहीं भी विचरण कर रहा है, उस समय उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति अपने आत्मगत भावों को प्रकट किये बिना (मैं साधु को अवश्य ही दान दूंगा, इस अभिप्राय को मन में संजोए हुए) प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक अशन, पान आदि बनवाता है, साधु के उद्देश्य से मोल
१.
'आहच्च गंथा फुसंति' की चूर्णिकार द्वारा कृत व्याख्या - "आहच्च णाम कताइ....गंथा यदुक्तं भवति बंधा, फुसंति जे भणितं पावेंति।" अर्थात् आहच्च यानी कदाचित् ग्रन्थ अर्थात् बंध, स्पर्श करते हैं - प्राप्त करते हैं। चूर्णि में 'सहसक्कारेह' का अर्थ किया गया है - 'सीसं से छिंदह' इसका सिर काट डालो, जबकि शीलांकवृत्ति में अर्थ किया गया है - 'शीघ्र मौत के घाट उतार दो।' चूर्णि में इसके बदले 'विप्परामसह' पद मानकर अर्थ किया है - 'विवहं परामसह, यदुक्तं भवति मुसह' - अर्थात् विविध प्रकार से इसे सताओ या लूट लो। इसकी व्याख्या चूर्णिकार ने यों की है - पडिलेहा=पेक्खित्ता, आयगुत्ते तिहिं गुत्तीहिं । अध उत्तरे वि दिज्जमाणे कुप्पति ण वा सतं उत्तरसमत्थो भवति, ताहे अदुगुत्तीए, गोवणं गुत्ती, वयोगोयरस्स' - अर्थात् - प्रतिलेखन करके देखकर, आत्मगुप्त - तीनों गुप्तियों से गुप्त । उत्तर दिये जाने पर यदि वह कुपित होता है, अथवा वह (मुनि) उत्तर देने में समर्थ नहीं है, तब कहाअगुत्तीए। अथवा वचन विषयक गोपन करे - मौन रहे।