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________________ २२८ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक अकल्पनीय विमोक्ष २०४. से भिक्खू परक्कमेज वा चिद्वेज वा णिसीएज्ज वा तुयटेज वा सुसाणंसि वा सुण्णागारंसिवा रुक्खमूलंसि वा गिरिगुहंसि वा कुंभारायतणंसि वा हुरत्था वा, कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खं उवसंकमित्तु गाहावती बूया - आउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइ भूताई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसटुं अभिहडं आहट्ट चेतेमि आवसहं वा समुस्सिणामि, से भुंजह वसह आउसंतो समणा ! तं भिक्खू ३ गाहावतिं समणसं सवयसं पडियाइक्खे - आउसंतो गाहावती ! णो खलु ते वयणं आढामि, णो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाणाई ४ समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेजं अणिसटुं अभिहडं आह१ चेतेसि आवसहं वा समुस्सिणासि। से विरतो आउसो गाहावती ! एतस्स अकरणयाए । २०५. से भिक्खू परक्कमेज वा जाव' हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खू उवसंकमित्तु गाहावती आतगताए पेहाए असणं वा ६ ४ वत्थं वा ४ पाणाई ४ समारंभ जाव ' आहटु चेतेति आवसहं वा समुस्सिणाति तं भिक्खं परिघासेतुं। तं च भिक्खू जाणेज्जा सहसम्मुतियाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा सोच्चा - अयं खलु गाहावती मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाणाइं ४ 'समारंभचेतेति आवसहं वा समुस्सिणाति। तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेजा अणासेवणाए त्ति बेमि । १. चूर्णि में 'सुसाणंसि' का अर्थ इस प्रकार किया है - "सुसाणस्स पासेट्ठाति । अब्भासे वा सुण्णघरे घा ठितओ होज, रुक्खमूले वा, जारिसो रुक्खमूलो णिसीहे भणितो, गिरिगुहाए वा" - इसका अर्थ विवेचन में दिया है। 'चेतेमि' पद के बदले कहीं 'करेमि' पद मिलता है, उसके सम्बन्ध में चूर्णिकार का मत - केयि भणंति करेमि, तं तु ण युजति, जेण तं आहियमेव, आहियस्स करणं ण विज्जति,' अर्थात् - कई 'करेमि' पाठ कहते हैं, वह उचित नहीं लगता, क्योंकि दाता ने जब सामने लाकर पदार्थ रख दिया, तब उस आहित (सामने रखे हुए) का 'करना' संगत नहीं होता। इसकी व्याख्या चूर्णिकार करते हैं - एवं णिमंतितो सो साहू...तो वि पडिसेहेयव्वं, कहं ? वुच्चइ - "तं भिक्खू गाहावतिं समाणं सवयसंपडियाइक्खेजा। तमिति तं दातारं।' अर्थात् इस प्रकार निमंत्रित किये जाने पर उस साधु को (उक्त दाता को) निषेध कर देना चाहिए, कैंसे ? कहते हैं - उस दाता गृहस्थ को वह भिक्षु सम्मानपूर्वक, सुवचनपूर्वक मना कर दे। चूर्णि में पाठान्तर है - 'णो खलु भे एवं वयणं पडिसुणेमे, कतरं ? जं मम भणसि - आउसंतो समणा ! अहं खलु तुब्भं अट्ठाते असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, जाव आवसहं समुस्सिणामि।' अर्थात् तुम्हारी यह बात मैं स्वीकार नहीं करता, कौनसी? जो तुमने मुझे कहा था - "आयुष्मन् श्रमण ! मैं तुम्हारे लिए अशनादि यावत् आवसथ (उपाश्रय) निर्माण करूँगा।" ५. यहाँ जाव' शब्द से पूरा पाठ २०४ सूत्र के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। ६. यहाँ का पूरा पाठ २०४ सूत्रानुसार ग्रहण करें। ७. यहाँ का पूरा पाठ २०४ सूत्रानुसार ग्रहण करें। ८. यहाँ का पूरा पाठ २०४ सूत्रानुसार ग्रहण करें। ९. यहाँ तीनों जगह का पाठ २०४ सूत्रानुसार ग्रहण करें। हावा ا ر
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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