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अष्टम् अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र २०१-२०२
२२५ (१) वह मुनि अपनी (सत्यमयी) वाणी की सुरक्षा करे यानी भाषासमितिपूर्वक वस्तु का यथार्थरूप कहे, (२) वाग्गुप्ति करे-बिल्कुल मौन रखे।'
सूत्र २०२ के उत्तरार्ध में धर्म के विषय में विवाद और मूढ़ता से विमुक्ति की चर्चा की गयी है। उस युग में कुछ लोग एकान्ततः ऐसा मानते और कहते थे - गाँव, नगर, आदि जनसमूह में रहकर ही साधु-धर्म की साधना हो सकती है। अरण्य में एकान्त में रहकर साधु को परीषह सहने का अवसर ही कम आएगा, आएगा तो वह विचलित हो जाएगा। एकान्त में ही तो पाप पनपता है । इसके विपरीत कुछ साधक यह कहते थे कि अरण्यवास में ही साधुधर्म की सम्यक् साधना की जा सकती है, अरण्य में वनवासी बनकर कंद-मूल-फलादि खाकर ही तपस्या की जा सकती है, बस्ती में रहने से मोह पैदा होता है, इन दोनों एकान्तवादों का प्रतिवाद करते हुए शास्त्रकार कहते हैं -
'णेव गामे, णेव रणे' - धर्म न तो ग्राम में रहने से होता है, न अरण्य में आरण्यक बन कर रहने से। धर्म का आधार ग्राम-अरण्यादि नहीं हैं, उसका आधार आत्मा है, आत्मा के गुण - सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र में धर्म है, जिससे जीव, अजीव आदि का परिज्ञान हो, तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा हो और यथोक्त मोक्षमार्ग का आचरण हो। वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही धर्म है। पूज्यपाद देवनन्दी ने इसी बात का समर्थन किया है -
ग्रामोऽरण्यमिति द्धेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम्।
. 'दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मैव निश्चलः ॥३ -- अनात्मदर्शी साधक गाँव या अरण्य में रहता है, किन्तु आत्मदर्शी साधक का वास्तविक निवास निश्चल विशुद्ध आत्मा में रहता है।
'जामा तिण्णि उदाहिआ' - यह पद महत्त्वपूर्ण है। वृत्तिकार ने याम के तीन अर्थ किए हैं - (१) तीन याम - महाव्रत विशेष, (२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, ये तीन याम।
(३) मुनि धर्म-योग्य तीन अवस्थाएँ - पहली आठ वर्ष से तीस वर्ष तक, दूसरी ३१ से ६० तक और तीसरी - उससे आगे की। ये तीन अवस्थाएँ 'त्रियाम' हैं। स्थानांग सूत्र में इन्हें प्रथम, मध्यम और अन्तिम नाम से कहा गया है। ५
अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह ये तीन महाव्रत तीन याम हैं, इन्हें पातंजल योगदर्शन में 'यम' कहा है। ६ भगवान् पार्श्वनाथ के शासन में चार महाव्रतों को 'चातुर्याम' कहा जाता था। यहाँ अचौर्य महाव्रत को सत्य में तथा ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत में समाविष्ट कर लिया है।
मनुस्मृति और महाभारत आदि ग्रन्थों में एक प्रहर को याम कहते हैं, जो दिन का और रात्रि का चतुर्थ भाग
आचा० शीला० टीका पत्रांक २६८ २. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २६८ (ख) 'ण मुणी रण्णवासेण'-उत्तरा० २५ । ३१
समाधिशतक ७३ ४. आचा० शीला० टीका पत्रांक २६८ ५. स्थानांगसूत्र, स्था० ३
आचार्य समन्तभद्र ने अल्पकालिक व्रत को नियम और आजीवन पालने योग्य अहिंसादि को यम कहा है-नियमः परिमितकालो यावजीवं यमो ध्रियते। आचा० शीला० टीका पत्रांक २६८
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