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________________ २२६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध होता है। दिन और रात्रि के कुल आठ याम होते हैं। संसार-भ्रमणादि का जिनसे उपरम होता है, उन ज्ञानादि रत्नत्रय को भी त्रियाम कहा गया है। 'अणियाणा' शब्द का यहाँ अर्थ है - निदान-रहित । कर्मबन्ध का निदान - आदि कारण राग-द्वेष हैं। उनसे वे (उपशान्त मुनि) मुक्त हो जाते हैं। दण्डसमारंभ-विमोक्ष २०३. उड्ढे अधं तिरियं दिसासु सव्वतो सव्वावंति च णं पाडियक जीवहिं कम्मसमारंभेणं । तं परिण्णाय मेहावी णेव २ सयं एतेहिं काएहिं दंडं समारंभेजा, णेवण्णेहिं एतेहिं काएहिं दंडं समारभावेजा, णेवण्णे एतेहिं काएहिं दंडं समारभंते वि समणुजाणेज्जा । जे चऽण्णे एतेहिं काएहिं दंडं समारभंति तेसिं पि वयं लज्जामो । तं परिणाय मेहावी तं वा दंडं अण्णं वा दंणं णो दंडभी दंडं समारभेज्जासि त्ति बेमि । ॥ पढमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ २०३. ऊँची, नीची एवं तिरछी, सब दिशाओं (और विदिशाओं) में सब प्रकार से एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर (उपमर्दनरूप) कर्म-समारम्भ किया जाता है। मेधावी साधक उस (कर्मसमारम्भ) का परिज्ञान (विवेक) करके, स्वयं इन षट्जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ न करे, न दूसरों से इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करवाए और न ही जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे। जो अन्य दूसरे (भिक्षु) इन जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करते हैं, उनके (उस जघन्य) कार्य से भी हम लज्जित होते हैं। (दण्ड महान् अनर्थकारक है) - इसे दण्डभीरु मेधावी मुनि परिज्ञात करके उस (पूर्वोक्त जीव-हिंसा रूप) दण्ड का अथवा मृषावाद आदि किसी अन्य दण्ड का दण्ड-समारम्भ न करे। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - शब्द-कोष के अनुसार 'दण्ड' शब्द निम्नोक्त अर्थों में प्रयुक्त होता है - (१) लकड़ी आदि का डंडा, (२) निग्रह या सजा करना, (३) अपराधी को अपराध के अनुसार शारीरिक या आर्थिक दण्ड देना, (४) दमन करना, (५) मन-वचन-काया का अशुभ व्यापार । (६) जीवहिंसा तथा प्राणियों का उपमर्दन आदि। यहाँ १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २५८ २. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २६८ (ख) 'निदानं त्वादि कारणात्'- अमरकोष । डिएकं' के बदले पाठ मिलते हैं - पडिएक्कं,पाडेक्कं, परिक्कं । चर्णिकार ने 'पाडियक' पाठ मानकर उसकी व्याख्या यों की है - 'पत्तेयं पत्तेयं समत्तं कायेसुदंडं आरंभंते इति । पाडियकं डंडं आरभंति । जतोऽयमुवदेसो...तं परिण्णाय मेहावी।' अर्थात् - षट्कायों में प्रत्येक - प्रत्येक काय के प्रति दण्ड आरम्भ-समारम्भ करता है, उसे ही शास्त्र में कहा है - पाडियक्कं डंडं आरभंति। क्योंकि यह उपदेशात्मक सूत्र पंक्तियाँ हैं, इसीलिए आगे कहा है - तं परिण्णाय। इसके बदले चूर्णि में पाठान्तर है- णेवसयं छज्जीवकायेसुडंडं समारंभेजा,णो विअण्णे एतेसुकायेसुडंडं समारभाविज्जा, जावसमणुजाणिजा ।अर्थात् - स्वयं षड्जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ न करे, न ही दूसरों से इन्हीं जीवकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करावे, और न ही दण्ड समारम्भ करने वाले का अनुमोदन करे। (क) पाइअसद्दमहण्णवो पृ० ४५१ (ख) आचा० शीला० टीका पत्रांक २६९ (ग) अभिधानराजेन्द्र कोष भा० ४ पृ० २४२० पर देखें
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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