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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
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गामे णेव रण्णे, धम्ममायाणह पवेदितं माहणेण मतिमया । जामा तिण्णि उदाहिआ जेसु इमे आरिया' संबुज्झमाणा समुट्ठिता, जे णिव्वुता पावेहिं कम्मेहिं अणिदाणा ते वियाहिता ।
२०१. इस प्रकार उन (हेतु-रहित एकान्तवादियों) का धर्म न सु-आख्यात (युक्ति-संगत) होता है और न ही सुप्ररूपित ।
जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ (सर्वज्ञ-सर्वदर्शी) भगवान् महावीर ने इस (अनेकान्त रूप सम्यक्वाद) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन साध कर रहे। ऐसा मैं कहता हूँ ।
२०२. (वह मुनि उन मतवादियों से कहे - ) ( आप सबके दर्शनों में आरम्भ) पाप (कृत- कारित - अनुमोदित रूप से) सर्वत्र सम्मत (निषिद्ध नहीं ) है, (किन्तु मेरे दर्शन में यह सम्मत नहीं है)। मैं उसी (पाप / पापाचरण) का निकट से अतिक्रमण करके ( स्थित हूँ) यह मेरा विवेक (असमनुज्ञवाद - विमोक्ष) कहा गया है।
धर्म ग्राम में होता है, अथवा अरण्य में ? वह न तो गाँव में होता है, न अरण्य में, उसी (जीवादितत्त्व - परिज्ञान एवं सम्यग् आचरण) को धर्म जानो, जो मतिमान् (सर्वपदार्थ- परिज्ञानमान् ) महामाहन भगवान् ने प्रवेदित किया (बतलाया है।
(उस धर्म के) तीन याम १. प्राणातिपात विरमण, २. मृषावाद - विरमण, ३. अदत्तादान-विरमण रूप तीन महाव्रत या तीन वयोविशेष (अथवा सम्यग्दर्शनादि तीन रत्न) कहे गए हैं, उन (तीनों यामों) में ये आर्य सम्बोधि पाकर उस त्रियाम रूप धर्म का आचरण करने के लिए सम्यक् प्रकार से ( मुनि दीक्षा हेतु) उत्थित होते हैं; जो (क्रोधादि को दूर करके) शान्त हो गए हैं; वे (पापकर्मों के) निदान (मूल कारण भूत राग-द्वेष के बन्धन) से विमुक्त कहे गए हैं।
विवेचन - असमनोज्ञ साधुओं के एकान्तवाद के चक्कर में अनेकान्तवादी एवं शास्त्रज्ञ सुविहित साधु इसलिए न फंसे कि उनका धर्म (दर्शन) न हो तो सम्यक्रूप से युक्ति, हेतु, तर्क आदि द्वारा कथित ही है और न ही सम्यक् प्रकार से प्ररूपित है।
भगवान् महावीर ने अनेकान्तरूप सम्यग्वाद का प्रतिपादन किया है। जो अन्यदर्शनी एकान्तवादी साधक सरल हो, जिज्ञासु हो, तत्त्व समझना चाहता हो, उसे शान्ति, धैर्य और युक्ति से समझाए, जिससे असत्य एवं मिथ्यात्व से विमोक्ष हो । यदि असमनोज्ञ साधु जिज्ञासु व सरल न हो, वक्र हो, वितण्डावादी हो, वचन - युद्ध करने पर उतारू हो अथवा द्वेष और ईर्ष्यावश लोगों में जैन साधुओं को बदनाम करता हो, वाद-विवाद और झगड़ा करने के लिए उद्यत हो तो ५ शास्त्रकार स्वयं कहते हैं- 'अदुवा गुत्ती वयोगोयरस्स' अर्थात् ऐसी स्थिति में मुनि वाणीविषयक गुप्ति रखे। इस वाक्य के दो अर्थ फलित होते हैं
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१.
२..
३.
४.
५.
आरिया के बदले चूर्णि में पाठान्तर है- 'आयरिया', अर्थ होता है - आचार्य ।
'णिव्वुता' के बदले चूर्णि में पाठ है - 'णिब्वुडा', जिसका अर्थ होता है - निवृत्त - शान्त ।
आचा० शीला० टीका पत्रांक २६८
कहा भी है- ' राग-दोसकरो वादो' ।
आचारांग ; आचार्य आत्माराम जी म० पृष्ठ ५५१