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________________ अष्टम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र २००-२०२ २२३ हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं । अथवा वे अदत्त (बिना दिए हुए पर-द्रव्य) का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध प्रकार के (एकान्त व निरपेक्ष) वचनों का प्रयोग (या परस्पर विसंगत अथवा विरुद्ध एकान्तवादों का प्ररूपण) करते हैं। जैसे कि-(कई कहते हैं-) लोक है, (दूसरे कहते हैं -) लोक नहीं है। (एक कहते हैं -) लोक ध्रुव है ', (दूसरे कहते हैं -) लोक अध्रुव है। (कुछ लोग कहते हैं -) लोक सादि है, (कुछ मतवादी कहते हैं -) लोक अनादि है। (कई कहते हैं -) लोक सान्त है, (दूसरे कहते हैं -) लोक अनन्त है। (कुछ दार्शनिक कहते हैं -) सुकृत है, (कुछ कहते हैं -) दुष्कृत है। (कुछ विचारक कहते हैं -) कल्याण है, (कुछ कहते हैं -) पाप है। (कुछ कहते हैं -) साधु (अच्छा) है, (कुछ कहते हैं -) असाधु (बुरा) है। (कई वादी कहते हैं -) सिद्धि (मुक्ति) है, (कई कहते हैं -) सिद्धि (मुक्ति) नहीं है । (कई दार्शनिक कहते हैं -) नरक है, (कई कहते हैं -) नरक नहीं है। . इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों को मानते हुए (नाना प्रकार के आग्रहों को स्वीकार किए हुए जो ये मतवादी) अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनके (पूर्वोक्त प्ररूपण) में कोई भी हेतु नहीं है, (ये समस्त वाद ऐकान्तिक एवं हेतु शून्य हैं), ऐसा जानो। विवेचन - असमनोज्ञ की पहिचान - असमनोज्ञ साधुओं की पहिचान के भिन्न वेष के अलावा दो और आधार इस सूत्र में बताए हैं - (१) मोक्षार्थ अहिंसादि के आचार में विषमता एवं शिथिलता। (२) एकान्तवाद के सन्दर्भ में एकान्त एवं विरुद्ध दृष्टि-परक श्रद्धा-प्ररूपणा। प्रस्तुत सूत्र के पूर्वार्ध में तथाकथित साधुओं के अहिंसा, सत्य एवं अचौर्य आदि आचार में विषमता और शिथिलता बताई है, जबकि उत्तरार्ध में असमनोज्ञ साधुओं की एकान्त एवं विरुद्ध श्रद्धा-प्ररूपणा की झांकी दी गयी एकान्त एवं विरुद्ध श्रद्धा-प्ररूपणा के विषय - असमनोज्ञ साधुओं की एकान्त श्रद्धा-प्ररूपण (वाद) के ५ विषय यहाँ बताए गए हैं - (१) लोक-परलोक, (२) सुकृत-दुष्कृत, (३) पुण्य-पाप, (४) साधु-असाधु और (५) सिद्धि-असिद्धि (मोक्ष और वध)। इन सब विषयों में असमनोज्ञों द्वारा एकान्तवाद का आश्रय लेने से यह यथार्थ और सुविहित साधु के लिए उपादेय नहीं होता। वृत्तिकार ने विभिन्न वादियों द्वारा प्ररूपित एकान्तवाद पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। ५ मतिमान-माहन प्रवेदित धर्म ____२०१. एवं तेसिं णो सुअक्खाते णो सुपण्णत्ते धम्मे भवति। से जहेतं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया । अदुवा गुत्ती वइगोयरस्स त्ति बेमि। ___ २०२. सव्वत्थ संमतं पावं । तमेव उवातिकम्म एस महं विवेगे वियाहिते । गामे अदुवा रण्णे ? णेव लोक कूटस्थ नित्य है (शाश्वतवाद)। लोक क्षण-क्षण परिवर्तनशील है (परिवर्तनवाद)। आचा० शीला० टीका पत्र २६५ आचा० शीला० टीका पत्र २६५ ५. आचा० शीला० टीका पत्र २६५, २६६, २६७ | ४.
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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